Tuesday 15 November 2016

पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'


          जन्म  सं. 1922 ( सन 1865 ई.),  मृत्यु सं. 2004 ( सन 1947 ई.)
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जीवन वृत्त

पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय  'हरिऔध' का जन्म बैशाख कृष्ण तृतीया संवत 1922 में हुआ. इनके पिता का नाम पं. भोलासिंह उपाध्याय और माता का नाम रुक्मणि देवी था. यद्यपि इनके पूर्वज बदायूं के रहने वाले थे परन्तु लगभग अढाई तीन सौ वर्षों में आजमगढ़ के समीप तमसा नदी के किनारे निजामाबाद कसबे में आ बसे थे. उपाध्याय जी पर पिता से अधिक चाचा ब्रह्म सिंह का जो कि ज्योतिष के बड़े विद्वान थे प्रभाव पड़ा और उन्ही की  देख-रेख में इनकी शिक्षा भी आरम्भ हुई. पांच वर्ष की अवस्था में उन्होंने इनका विद्यारम्भ प्रारम्भ किया और घर पर छोटी छोटी पुस्तकें पढ़ते रहे. सात वर्ष की अवस्था में वह निजामाबाद के मिडिल स्कूल में भरती किये गए जहाँ से सं. 1936 में इन्होने मिडिल वर्नाक्युलर की परीक्षा उत्तीर्ण की. इसके उपरान्त यह बनारस के क्वींस कालेज में प्रविष्ट हुए परन्तु स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण यह आगे न पढ़ सके और घर पर ही संस्कृत, फ़ारसी, उर्दू, गुरुमुखी व पिंगल का अध्ययन करते रहे. सं. 1939 में इनका विवाह अनंतकुमारी देवी के साथ हुआ और सं. 1941 में यह निजामाबाद के तहसील स्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए. निजामाबाद में यह बाबा सुमेरसिंह से विशेष प्रभावित हुए और 'हरिऔध' उपनाम इसी बीच रखा गया. सं. 1946 में इन्होने कानूनगो की परीक्षा उत्तीर्ण की और कानूनगो का स्थायी पद प्राप्त किया, जिसमे यह निरंतर उन्नति करते रहे. 1 नवम्बर सन 1923 में पेंशन लेकर हिंदी काशी  विश्व विद्यालय में अवैतनिक अध्यापक का काम करते रहे और निरंतर हिंदी साहित्य की सेवा में रत रहे.  हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी बनाये गए और 'प्रियप्रवास' पर इन्हें मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्रदान किया गया तथा सम्मेलन की 'साहित्य वाचस्पति' उपाधि से भी विभूषित किये गए.

भाषा शैली -

हरिऔध जी का भाषा पर व्यापक अधिकार है. इन्होने ब्रज और खड़ी बोली दोनों भाषाओँ में समानाधिकार से रचनाएं की हैं. ये जैसी सफलता से संस्कृतमयी भाषा में अभिव्यक्ति करते हैं; उतनी ही सफलता से बोल-चल की मुहावरेदार हिंदी में भी रचनाएं करते हैं.
हरिऔध जी की ब्रज भाषा में सरलता, प्रांजलता, सरसता आदि गुण मिलते हैं. इनकी रचनाओं में ना तो क्लिष्टता है और न ही शब्दों की तोड़-मरोड़ ही है.
खड़ी बोली हिंदी में हरिऔध जी के 'प्रियप्रवास', 'वैदेही-बनवास' और 'चोखे चौपदे' प्रमुख ग्रन्थ हैं. 'प्रियप्रवास'  और 'वैदेही-बनवास' की भाषा संस्कृत निष्ठ है. कहीं पर तो यदि हिंदी क्रियाओं को निकाल दिया जाय तो भाषा हिंदी के स्थान पर विशुद्ध संस्कृत ही बन जाती है.

काव्य की विशेषताएं -

काव्यधारा  - हरिऔध जी की काव्यधारा युग की परम्पराओं और मान्यताओं की सच्चाई को  साथ लेकर प्रवाहित हुई है. इसमें बुद्धिवादी युग का नपा जीवन-दर्शन मानवीय दृष्टिकोण और प्रगतिशील विचारधारा का समन्वय हुआ है. 'रस कलश', 'प्रियप्रवास' और वैदेही बनवास' में पुरानी कथा वस्तु इन्होने आधुनिक बुद्धिवादी जीवन दर्शन की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत की है.

विविधता - इनके काव्य में विषयवस्तु, भाषा और शैली की दृष्टि से विविधता मिलती है. शैली की दृष्टि से इन्होने मुक्तक और प्रबंध दोनों ही प्रकार के काव्य लिखे हैं. शुद्ध साहित्यिक और संस्कृत तत्समता प्रधान भाषा में रचनाएँ की हैं.

ब्रज भाषा - हरिऔध जी की काव्य साधना का प्रारंभ ब्रज भाषा से होता है तो इन्होने प्रारंभ में श्री कृष्ण की भक्ति सम्बन्धी रचनाएं लिखीं. 'रस-कलश' ब्रजभाषा में इनकी प्रौढ़तम रचना है. यह रीति ग्रन्थ है. इसमें अलंकार और नायिका भेद आदि का निरूपण है. नायिका वर्णन के साथ इनका ऋतू वर्णन भी बहुत सुन्दर है. प्रेमाकर्षण का आधार शारीरिक सौन्दर्य मात्र न होकर मानसिक सौन्दर्य और उदात्त विचार है.

खड़ी बोली - आगे चलकर हरिऔध जी का मोह ब्रजभाषा में नहीं रहा और खड़ी बोली की ओर आ गए. पहले इन्होने बोलचाल की खड़ी बोली में उर्दू छंदों को अपनाया. इसके पश्चात पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से संस्कृत  वर्ण वृतों और संस्कृत की समस्त पदावली में महाकाव्य 'प्रिय-प्रवास' की रचना की. 'प्रिय-प्रवास' में  इन्होने प्रकृति चित्रण बड़े विस्तार से किया है. 'वैदेही-बनवास' में प्रकृति का संश्लिष्ठ चित्रण अधिक मिलता है.

रस योजना - हरिऔध जी के काव्य में मुख्य रूप से श्रृंगार और वात्सल्य रस की अभिव्यक्ति हुई है. 'रस-कलश' में श्रृंगार रस का विस्तार से विवेचन हुआ है. इसमें संयोग श्रृंगार के बड़े ही सुन्दर चित्र मिलते हैं. इनमे वासना की गंध नहीं है. एक गोपी कहती है -
"मन्द मन्द समंद की सी चालन सों,
  ग्वालन लै लालन हमारी गली आइये ! "
इनकी रचनाओं  में करुण विप्रलंब बहुत ही गहरा है. ब्रज बालाओं के वियोग में विप्रलंब करुण है, वहाँ माता यशोदा का वात्सल्य अकुलाहट और टीस में करुणा की सीमा में पहुँच गया है.

छंद योजना -
हरिऔध जी के काव्य में अनेकों छंदों का प्रयोग मिलता है. इनके काव्य में ग्रामीण छंद जैसे चुभते चौपदे और चौखे चौपदे हैं. रीतिकाल छंदों में कवित्त-सवैया छंद, मात्रिक छंद अर्थात वैदेही बनवास में प्राचीन और नवीन छंदों पर समान अधिकार मिलता है. और प्रिय प्रवास में संस्कृत के वर्णवृत छंद मिलते हैं.

अलंकार योजना - इन्होने शब्दालंकारों और अर्थालंकारों का सफल प्रयोग किया है. यमक, शलेश, अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक, विभावना आदि हरिऔध जी के प्रिय अलंकार हैं. इनकी नजर में अलंकारो का आश्रय कल्पना की उड़ान नहीं थी बल्कि सर्वत्र इसका सीधा साधा प्रयोग करना था.  एक रूपक का उदाहरण देखिये -
"ऊधो मेरा हृदय तल था एक उद्यान न्यारा !
शोभा देती अमित उसमे कल्पना क्यारियाँ थीं !
प्यारे प्यारे कुसुम कितने भाव के थे अनेकों !
उसके विपुल विटपी मुग्धकारी महा थे".

कृतियाँ
हरिऔध जी प्रतिभा बहुमुखी थे और इन्होने कविता, उपन्यास, नाटक, निबंध व् समालोचना सभी क्षेत्रों में अत्यधिक कार्य किया.

काव्य - प्रियप्रवास, वैदेही बनवास, रस-कलश, पद्य-प्रसून, चोखे-चौपदे, चुभते चौपदे, बोलचाल, प्रेमाम्बु-प्रश्रवन, प्रेमाम्बु वारिधि, प्रेमाम्बु प्रवाह, प्रेम-पुष्पोहार, प्रेम-प्रपंच, कल्पलता, पारिजात औत सतसई आदि.

उपन्यास अनुवाद - वेनिस का बांका, रिपवान विकल,

मौलिक - ठेठ हिंदी का ठाठ, अधखिला फूल

नाटक - रुक्मिणी परिणय और प्रद्युम्न विजय व्यायोग !

समालोचनात्मक - हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, कबीर वचनावली की भूमिका, साहित्य सन्दर्भ !

सं. 2004 (सन 1947 ई.) में यह चमकता सितारा हमारे साहित्य की सेवा करते करते विलुप्त हो गया.

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