Sunday 13 January 2019

मंगलेश डबराल : आउटलुक साहित्य वार्षिकी-2018 के बहाने

डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद
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डब्ल्यू. साॅमरसेट माॅम का एक लोकप्रिय कथन है-‘अपने मित्रों का चयन करते समय आप हमेशा उनके चरित्र को वरीयता दें, उनके व्यक्तित्व को नहीं’।
कवि एवं लेखक मंगलेश डबराल बिना किसी विशेषण नवाजे चरित्र से जमते हैं। वे नई पीढ़ी को लगातार पढ़ रहे हैं तथा उनकी नोटिस ले रहे हैं। उनमें वरिष्ठता का कोई दंभ-अहंकार नहीं, बड़े होने की मगुरूरियत नहीं। क्या खूब कि वह अनुज लुगुन की कविता पर आत्मीय किन्तु चौकस निगाह डालते हैं-‘हजारों साल की यातनाओं का दर्द उभारता है तुम्हारा स्कूल-ड्रेस/दुर्ग की मजगबूत दीवारों में कैद नहीं थीं किताबें/पोथियाँ कैद नहीं रह सकती किसी कैदखाने में/वह तो हमारी जाति थी जिसके लिए दुर्ग की मजबूत दीवारें थीं/बुर्ज पर प्रहरी थे और उनके खतरे की घंटी हमारे खि़लाफ बजती थी/आज जब तुम स्कूल जाती हो/तो लगता है यातनाओं का दर्द कम हो रहा है/आँसुओं की नमी अब कुछ पतली हो चली है/तुम घर की चैखट से ऐसे निकलती हो/जैसे सूरज का रथ निकल रहा हो अन्धेरे के खि़लाफ/तुम न सिर्फ चौैका-बर्तन धो जाती हो/बल्कि उन अन्धेरे कमरों कमरों को बुहार जाती हो/जो हमारे ही घरों में पुरुषों की सोच में कहीं टंगा होता है।’
सिर्फ युवा कवि अनुज ही नहीं, बल्कि आज की नई पीढ़ी की जसिंता केरकेट्टा और कौशल पंवार भी उनकी निगाहबानी में है। कवि मंगलेश इनकी प्रतिरोधी चेतना की न सिर्फ सराहना करते हैं बल्कि अपनी स्मृतियों के बल पर उन्हें उनकी कविताओं के साथ याद भी करते हैं। ऐसी सदाशयता और बड़प्पन कवि की लोक-चेतना और लोक-मर्म को चरितार्थ करती है जो अपने होने को सबके होने से पुष्ट करता है। भावी पीढ़ी संभावनाशील और उदीयमान है; कवि मंगलेश जब यह स्वीकारते हैं तो हमारा भय, डर, खौफ इत्यादि इस अराजक और असहिष्णु माहौल के बढ़ते अन्धेरे के बावजूद संजीवीनी पाता है; समसामयिक कुहरे के समानान्तर रोशनाई के फ़लक पसरते मालूम देते हैं। नवमाध्यमों के अगंभीर रवैए और साहित्यिक मुलम्मे की वह जमकर आलोचना करते हैं, लेकिन इस माध्यम को नकारते कतई नहीं हैं। कवि एवं लेखक मंगलेश डबराल यह मानते हैं कि-‘सोशल मीडिया, ब्लाॅग, फेसबुक, मोबाइल जैसे मंचों-माध्यमों की गहमागहमी ने साहित्य को पहले से अधिक लोकतांत्रिक बना दिया है और उसकी ‘विशिष्टता’, ‘अद्वितीयता’ ख़त्म कर दी है।
वे जब कहते हैं, तो मन सहसा हर्षित और पुलकित हो उठता है-‘नए लोगों से हमें आश्वस्ति और उम्मीदें क्यों रखनी चाहिए? शायद इसलिए कि समाज के संकट और सवाल आज पहले से कहीं अधिक गंभीर हो गए हैं और सत्ता-राजनीति अपने सबसे निकृष्ट, भ्रष्ट, हिंसक और साम्प्रदायिक रूपों में समाज को तोड़ने-बाँटनें में लगी है। शिक्षा, कला और संस्कृति की संस्थाएँ भी हमलों की जद में हैं। यह सही है कि हिंदी साहित्य आमतौर पर प्रतिबद्ध और यथास्थिति विरोधी रहा है, लेकिन मौजूदा परिदृश्य में लेखकों-कवियों से कहीं ज्यादा और कारगर हस्तक्षेप की अपेक्षा की जानी चाहिए। इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं जब राजनीति द्वारा नष्ट किए जा रहे जीवन-मूल्यों को बचाने का दायित्व लेखकों को उठाना पड़ता है।’’
लेखक की रचनाधर्मिता में आम-अवाम की शक्लोंसूरत दिखनी चाहिए जिसकी कामना रघुवीर सहाय ने भी की है जो कहते हैं-‘जिंदगी की कई चीजों में से जो एक चीज बेहद जरूरी है वह है-अपनी वह शक्ल जो हम अवाम में देखना चाहते हैं।’ (लेखक की रोटी, मंगलेश डबराल)
लेखक लोक से बड़ा नहीं हो सकता है, लेकिन लोक के माध्यम से बड़ा अवश्य बन जाता है।

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