Sunday 13 January 2019

आउटलुक साहित्य वार्षिकी-2018

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डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

पत्रकारिता की साख गिरी है, परम्परा नष्ट हुई हैं; पर पतनशील इन संस्थाओं में लौ, चिंगारी या कह लें आग शेष हैं। ‘आउटलुक’ अपनी ही तरह की पत्रिका है जिसके संस्थापक सम्पादक विनोद मेहता मेरे आदर्श रहे हैं। आज की तारीख़ में हरवीर सिंह मेरे लिए अजनबी संपादक हैं, लेकिन पत्रिका के बतौर सम्पादक उनका नाम खुदा है, सो मान लिया कि आउटलुक की परम्परा को आगे बढ़ाने का ध्वज़ फिलहाल उनके हाथों में है और वे इस दायित्व-निवर्हन में सफल होंगे। इस अंक के संयोजन-सम्पादन के लिए सम्पादक को साधुवाद! नमन!
यह कवर 03 दिसम्बर, 2018 का है जो साहित्य, समाज और राजनीति के परिप्रेक्ष्य में ‘आज की चुनौतियों’ का शिनाख़्त करता है। इस अंक के लेखकों में शामिल-शुमार हैं- ‘विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी, गिरिराज किशोर, सुरजीत पातर, रामदरश मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी, काशीनाथ सिंह, असगर वजाहत, मंगलेश डबराल, असद जैदी, कांचा अइलैय्या, अब्दुल बिस्मिल्लाह, सुधीश पचौरी।’
आइए न थोड़ा देखें कि ये नामित लेखक कितने ‘जैनुइन’ और ‘ज़मीनी’ हैं या फिर ‘हवाई फायर’/‘मिस फायर’ करने में उस्ताद। जैसे आजकल मंच पर चढ़ने से पूर्व अधिसंख्य अकादमिक प्रोफेसरों का ज्ञान ज़मीन लोटता है। वे किसी विषय पर हाँ-हुंकारी के अलावे कोई विशेष तफ़्तीश करते, तर्क देते या सम्यक् संवाद करते नहीं दिखाई देते हैं; किन्तु मंच और माइक पर जाते ही उनके भीतर से ज्ञान की त्रिवेणी बहने लगती है। इस सोते से वाक्य तो फूटते हैं पर वे अपने विषय, सन्दर्भ, तथ्य, अन्तर्वस्तु से कई मर्तबा दूसरी तरफ चली जाती हैं। तुर्रा तो यह कि आजकल ऐसे ही वक्ता/प्रवक्ता बुलाए जाते हैं प्रायः अकादमिक सेमिनारों-संगोष्ठियों में।
इसलिए मैंने सोचा कि पत्रकारिता जिनको सही मायने में वरिष्ठ और प्रतिष्ठित लेखक मानती है उनकी सुध ली जाए। उनके कहे का असल मायने समझा जाए। तो चलिए शुरू करते हैं सबसे पहले सुधीश पचौरी से जिनकी हकीकत बयां करती भाषा इतनी तीखी और काटु है कि कई बार मुझ जैसे युवा के मन-बुद्धि में सिहरन-सी दौड़ जाती है। यह तो गनीमत है मेरे विवेक का जो इसका सापेक्ष मुकाबला करती है; अपने होने में दृढ़ खड़ी रहती है। 

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