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राजीव रंजन प्रसाद
“भारतीय संस्कृति में दर्शन विवाद रहित है, लेकिन वादों की परम्परा जबर्दस्त है। यहाँ के दर्शन और चिन्तन-मनन में एकत्व से बहुत्व की यात्रा देखी जा सकती है। पूर्वोतर की जनजातीय संस्कृति से काफी कुछ सीखा जा सकता है। समर्पण, सद्भावना, समाज-सेवा के सांस्कृतिक मूल्य-बोध को संरक्षित एवं सुरक्षित रखे जाने की जरूरत है। उसे राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित-प्रसारित करने की आवश्यकता है। इसकी पुनःस्थापना भारत के दर्शन एवं संस्कति के साक्षात्कार द्वारा ही संभव है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि पूर्वोत्तर की जनजातीय संस्कृति एवं दर्शन का मूल स्वर है-समन्वय के साथ समरूपता।“
राजीव रंजन प्रसाद
दो दिवसीय संगोष्ठी
भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद्, नई दिल्ली एवं
हिन्दी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय का संयुक्त आयोजन
15-16 नवम्बर, 2018
पूर्वोत्तर की जन-संस्कृति है-समन्वय के साथ समरूपता
“भारतीय संस्कृति में दर्शन विवाद रहित है, लेकिन वादों की परम्परा जबर्दस्त है। यहाँ के दर्शन और चिन्तन-मनन में एकत्व से बहुत्व की यात्रा देखी जा सकती है। पूर्वोतर की जनजातीय संस्कृति से काफी कुछ सीखा जा सकता है। समर्पण, सद्भावना, समाज-सेवा के सांस्कृतिक मूल्य-बोध को संरक्षित एवं सुरक्षित रखे जाने की जरूरत है। उसे राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित-प्रसारित करने की आवश्यकता है। इसकी पुनःस्थापना भारत के दर्शन एवं संस्कति के साक्षात्कार द्वारा ही संभव है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि पूर्वोत्तर की जनजातीय संस्कृति एवं दर्शन का मूल स्वर है-समन्वय के साथ समरूपता।“
उक्त बातें भारतीय इतिहास संकलन
योजना के राष्ट्रीय संगठन सचिव डाॅ. बालमुकुन्द पाण्डेय ने बीजवक्ता के रूप में
बोलते हुए कहीं।
डाॅ. पाण्डेय राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग तथा भारतीय दार्शनिक
अनुसन्धान परिषद्, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में ‘पूर्वोतर
की जनजातियों का दर्शन एवं संस्कृति’ विषय पर आयोजित दो दिवसीय
राष्ट्रीय संगोष्ठी में बोल रहे थे। उद्घाटन सत्र का आरंभ दीप-प्रज्ज्वलन के साथ
ताकु तावत की स्थानीय रस्म को निभाते हुए किया गया। इस मौके पर संगोष्ठी से सम्बन्धित स्मारिका का विमोचन हुआ; साथ ही गुवाहाटी स्थित केन्द्रीय हिन्दी
संस्थान के क्षेत्रीय निदेशक डाॅ. राजवीर सिंह ने राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के
कुलपति प्रो. साकेत कुशवाहा को ‘हिन्दी-निशी अध्येता कोश’ भेंट
की।
विश्वविद्यालय
के ए.आई.टी.एस. सम्मेलन कक्ष में उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता कर रहे राजीव गाँधी
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. साकेत कुशवाहा ने कहा कि-“जनजातीय
समाज में प्रकृति के प्रति निष्ठा गहरी है, तो उनसे
लगाव बेजोड़ है। पूर्वोत्तर में जनजातियों की बहुलता है। इसके बावजूद सामूहिकता एवं
समभाव प्रचुर है। उनके दर्शन एवं संस्कृति में शोध-अनुसन्धान किए जाने की आवश्यकता
है। उनके दर्शन तथा संस्कृति को केन्द्र में रखते हुए गंभीर कार्य करने की जरूरत
है। सांस्कृतिक-बोध से लैस नैतिक कर्तव्य की आवश्यकता आज सबको है जिसका मुख्य स्वर
है-राष्ट्र को एकीकृत कर के रखना।“ मुख्य
अतिथि के रूप में बोलते हुए पूर्व कुलपति प्रो. तामो मिबाङ ने कहा कि-‘इतिहास-निर्माण
का काम हमने किया है। इस क्रम में मनुष्य ने समाज एवं संस्कृति की रचना कई स्तरों
पर की है। जनजातीय संस्कृति एवं दर्शन का इतिहास पुराना है, लेकिन
आज किस दशा में है; उसकी भाषा की स्थिति कैसी है; यह पक्ष
विचारणीय है। शोध-अनुसन्धान की दृष्टि से अकादमिक कार्यो द्वारा यहाँ की संस्कृति
एवं दर्शन पर गंभीर रूप से सोचने-विचारने की आवश्यकता है। हमें यह भी देखे जाने की
जरूरत है कि विकास के मार्ग पर हम आगे बढ़े हैं या पीछे की ओर धकेले जा रहे हैं। जनजातीय संस्कृति तो उस बगीचे की तरह है जो सबको
फलने-फूलने का समान अवसर और समय प्रदान करती है;’ परन्तु
आज सर्वाधिक खतरा उसी के दर्शन एवं संस्कृति पर मंडरा रहा है।“ विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. तोमो
रिबा ने कहा कि-‘’भूगोल और जलवायु आधारित जनजातीय
संस्कृति की विविधता दर्शनीय है। सांस्कृतिक-बोध से लैस अरुणाचल में जैसे-जैसे
यात्रा की दिशा बदलेंगे, दृश्य दूसरी होती चलीं
जाएगी। शहरीकरण ने यहाँ की लोक-संस्कृति को बदल दिया है। नई पीढ़ी अपनी परम्परा और
स्मृति से कटती जा रही है।
जबकि हमारे यहाँ बच्चों के नामकरण तक की परम्परा में दर्शन व संस्कृति कूट-कूट कर
भरे हैं। हमारे लिए प्रत्येक शब्द का महत्त्व है, इसलिए
पुरखों से आती अपनी वंश-परम्परा का अनुपालन हम स्वाभाविक रूप से करते आ रहे हैं।
उनसे छेड़छाड़ को हमारी दर्शन एवं संस्कृति में पाप माना जाता है।“
विषय-प्रस्तावना
प्रस्तुत करते हुए करते हुए हिंदी
विभागाध्यक्ष प्रो. ओकेन लेगो ने कहा कि-‘‘पूर्वोत्तर
के साथ मुख्य भारत का रिश्ता भावनात्मक रूप से मजबूत है। पूर्वोत्तर भारत की दर्शन
एवं संस्कृति को पहचान एवं अस्मिता का पर्याय माना गया है। पूर्वोत्तर कुल मिलाकर
जनजातियों का घर है। अज्ञानता के कारण हम पूर्वोत्तर को भारत से भिन्न मान बैठते
हैं, लेकिन
यहाँ की दर्शन एवं संस्कृति ही वह मुख्य चीज है जिसके द्वारा यहाँ की जनजातियों को
पहचाना जा सकता है। यहाँ के दर्शन में सूक्ष्म विचारों की मूल अभिव्यक्ति को ही
दर्शन का नाम दिया गया है।“ इस मौके
पर भाषा संकायाध्यक्ष प्रो. हरीश कुमार शर्मा ने कहा कि-‘‘समय के
साथ चीजें परिवर्तित होती हैं। बदलाव स्वाभाविक तौर पर होते रहे हैं। दर्शन एवं
संस्कृति में पूर्वजों की स्मृति भी शामिल हैं। ऐसे में संस्कृति और दर्शन से दूर
जाने का अर्थ है-अपने पुरखों की परम्परा और विरासत से कट जाना। अरुणाचल की
जनजातियों में पितृपुरुष के रूप में आबोतानी की उपस्थिति यहाँ के दर्शन एवं
संस्कृति का द्योतक है।“ उद्घाटन
सत्र में स्वागत वक्तव्य इस संगोष्ठी के संयोजक डाॅ. सत्यप्रकाश पाॅल ने दी, तो
धन्यवाद ज्ञापन डाॅ. राजीव रंजन
प्रसाद ने दिया। उद्घाटन सत्र का संचालन डाॅ. विश्वजीत कुमार मिश्र द्वारा तो अन्य
दो सत्रों का संचालन क्रमशः तुनुङ ताबीङ
और डाॅ. तादाम रूटी ने किया।
ध्यातव्य है कि 15-16 नवम्बर को आयोजित
इस दो दिनी राष्ट्रीय संगोष्ठी के विभिन्न तकनीकी सत्रों के अन्तर्गत अरुणाचल सहित पूर्वोत्तर के विभिन्न क्षेत्रों से आये प्राध्यापकों, शोधार्थियों
आदि ने अपने शोध-पत्र का वाचन किया तथा पूर्वोत्तर की जनजातीय दर्शन एवं संस्कृति
से जुड़ी महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया। इस संगोष्ठी में साफतौर से इस बात की
पुष्टि हुई कि भारत के सभी हिस्सों में ज्ञान, सूचना एवं जानकारियों का आदान-प्रदान
सम्यक् नहीं है। संचारगत साधनों की अधिकता और उपस्थिति के बावजूद शेष भारत के निवासी
पूर्वोत्तर भारतवासी के दर्शन एवं संस्कृति से अपरिचित हैं, उनके वैचारिक दर्शन एवं
ऋत-व्यवस्था से अनभिज्ञ हैं। अकादमिक शोध-अनुसन्धान की वर्तमान परिस्थितियाँ भी मुख्य
वजह कही जा सकती हैं जहाँ उत्तर-पूर्व के बारे में स्थूल-सूक्ष्म गहन विचार-विश्लेषण
एवं सरोकारी-अध्ययन का सर्वथा अभाव है। अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम,
असम, मेघालय के विभिन्न क्षेत्रों से आये पत्र-वाचको ने भारत के सीमांत भू-भाग में
अवस्थित पूर्वोत्तर के निवासियों की लोक-आस्था, जन-विश्वास आदि से सम्बन्धित मान्यताओं,
स्थापनाओं, सामूहिक आकांक्षाओं, मूल-प्रवृत्तियों, दार्शनिक अवधरणाओं, साहित्यिक रचनाओं
आदि के परिप्रेक्ष्य में न सिर्फ अपनी बातें रखीं; बल्कि उन्हें नई दिशा-दृष्टि के
साथ जनजातीय दर्शन एवं संस्कृति को समझने के लिए जरूरी आधार भी प्रदान किया। कई सारी
जिज्ञासाओं एवं वैचारिक उद्वेलनों का गवाह बने इस संगोष्ठी की सबसे बड़ी सफलता यह रही
कि हिन्दीतरभाषी क्षेत्र होने के बावजूद हिंदी में प्रस्तुत शोध-पत्र और प्रकाशित स्मारिका
हिदी के तथाकथित गुणीजनों, चिंतकों, विद्वानों को नई सूझ और नवोन्मेषी विचार-बिन्दु
देती हुई प्रतीत होती हैं। इनमें
से मुख्य रूप से डाॅ. जमुना बीनी तादर, डाॅ.
राजवीर सिंह, डाॅ. तारो सिंदिक, डाॅ.
तादाम रूटी, डाॅ. रीतामणि वैश्य, डाॅ.
जोनाली बरुआ, डाॅ. दिनेश साहू, डाॅ.
ङूरी शांति, डाॅ. श्याम शंकर सिंह, डाॅ. अमरेन्द्र त्रिपाठी, डाॅ. नंदिता दत्ता, यशोदरा, पूजा
बरुआ, डिम्पी कलिता, सरिफुल
जमान, हरिव्रत सइकिया, उदित, ताल्लुकदार, रूबी
मोनी एवं अनन्या दास, प्रांजल नाथ, इंग
परमे, तेली मेचा, चारु चैहान
आदि की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण रही।
प्रथम तकनीकी सत्र की अध्यक्षता
करते हुए प्रो. के. एन. तिवारी ने कहा कि-“यह
संगोष्ठी इस मामले में अभूतपूर्व है कि यह भारत के सभी हिस्सों को आपस में जोड़ती
है। एक-दूसरे को जानने को प्रेरित करती है। तकनीकी सत्र की वक्ताओं को सुनते हुए
लगा कि जनजातीय दर्शन एवं संस्कृति में ऐसा बहुत कुछ है जिसे जाने बगैर एकीकृत
राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती है।“ हिन्दी
विभाग में प्राध्यापिक डाॅ. जोराम यालाम नाबाम ने कहा कि-‘‘अपना जनजातीय समाज अनीश्वरवादी है। ईश्वर
हमारी कल्पना में नहीं है और न ही अवतार की अवधारणा हमारी जनजातीय संस्कृति में
है। तानी दर्शन अवतारवाद नहीं है। इसी तरह
हमारी संस्कृति में प्रकृति की पूजा नहीं है उसके साथ हमारा तदाकार भाव है।
जनजातीय संस्कृति में जो जैसा है उस सत्य को उसी रूप में जानने की कला दर्शन कही
जाती है। यही नहीं जनजातीय समाज की स्त्री-दृष्टि भिन्न है, इसे दूर
से नहीं निकट से देखने एवं जानने की जरूरत है।“ इससे
पूर्व दिल्ली विश्वविद्यालय से आये प्रो. चंदन कुमार ने कहा कि-‘‘पूर्वोत्तर
के हर भू-भाग में लीला-भाव के दर्शन होते
हैं। उत्सवधर्मिता यहाँ के लोक-मानस की संस्कृति है। यहाँ की जनजातियाँ
प्रकृतिपूजक हैं। वाचिक परम्परा की समृद्ध निधि यहाँ की मुख्य पहचान है।“ बीएचयू से आए प्रो. राकेश कुमार
उपाध्याय ने कहा कि-‘‘अरुणाचल की संस्कृति के मूलभाव और मूलदृष्टि में
सामूहिक आकांक्षा और चित्तवृत्ति है। संस्कृति का अर्थ है-जीवन का दर्शन,
उसका अध्ययन। भारतीय
दर्शन-संस्कृति में शून्य से सबके निर्माण की संकल्पना है। असल मीमांसा भारत को
समग्रता में देखने एवं संस्कृति के आलोक में गंभीरतापूर्वक अध्ययन एवं अनुसन्धान
द्वारा ही संभव है।’’ वक्ता के रूप में डाॅ. मणि कुमार ने कहा कि-‘‘लोकगीत, लोकनृत्य जनजातीय संस्कृति की मुख्य परम्परा है। असम
में सत्र के विधान हैं, तो पूर्वोत्तर के अन्य क्षेत्रों में जलवायु और
वातावरण के अनुसार पर्व, त्योहार, उत्सव आदि हैं। नृत्य में संस्कृति की झाँकी मिलती है,
तो लोकगीत में दर्शन साफ दिखाई
पड़ता है।’’
15-16
नवम्बर को आयोजित इस कार्यक्रम के पहले दिन बोलते हुए डाॅ. आशुतोष तिवारी ने ‘गारो
संस्कृति एवं दर्शन’ पर अपनी दृष्टि डाली और कहा
कि-गारो साहित्य में दर्शन एवं संस्कृृति की मौजूदगी जीवंत और समृद्ध है। संस्कृति
स्वभाव तथा संस्कार में घुली हुई है। उनके क्रियाकलाप, गृह-निर्माण, शिल्प-कला
आदि पर गारो जनजाति की छाप देखी जा सकती है।’’ इस सत्र
में वक्ता के रूप में बोलते हुए डाॅ. शिव नारायण ने कहा कि-‘‘जनजातियों
की अपनी लिपि न होने की वजह से साहित्य की अनुपलब्धता हमारे अज्ञान का बड़ा कारण
बनती हैं। जनजातीय दर्शन एवं संस्कृृति वाचिक रूप से समृद्ध है, लेकिन
लिखित साहित्य में उनकी हिस्सेदारी कम है। इसके लिए शोध-अनुसन्धान जरूरी है। सिर्फ
प्राचीन कथाओं से उनके दर्शन एवं संस्कृति को जान पाना मुश्किल है।“ डाॅ. कोयल विश्वास ने कहा कि-‘‘यहाँ के
लोगों में आपस में प्रेम और विश्वास अनोखा है। धर्म तक में दयाए परोपकार, स्नेह
एवं सेवा-भाव प्रचुर है। जनजातियों के दर्शन एवं संस्कृति पर विचार करते हुए जरूरी
है कि अकादमिक पाठ्यक्रमों को बदला जाए। उसमें जनजातीय जीवन-संस्कृति, दर्शन
आदि को जोड़ा जाना जरूरी है।’’ दूसरे तकनीकी सत्र की अध्यक्षता
कर रहे प्रो. महेन्द्र पाल शर्मा ने कहा कि-‘‘भाषाओं
के बीच सम्बन्ध मजबूत होने चाहिए। आपसी आदान-प्रदान से संस्कृति एवं दर्शन का
परिचय मिलता है। जनजातीय दर्शन एवं संस्कृति को जानने के लिए गंभीरतापूर्वक कार्य
करने और इस बारे में कुछ ठोस पहलकदमी की आवश्यकता है।’’
संगोष्ठी
के दूसरे दिन समानान्तर सत्र सहित चार तकनीकी सत्र हुए जिसकी अध्यक्षता क्रमशः
प्रो. एम. वेंकेटेश्वर, प्रो. राकेश उपाध्याय, डाॅ.
शिवनारायण व प्रो. चन्दन कुमार ने की। समापन सत्र के मुख्य अतिथि डाॅ. रवि प्रकाश
टेकचंदाणी एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में हैदराबाद से पधारे वरिष्ठ विद्वान प्रो. एम. वेकेटेश्वर ने अपना गरिमामय उद्बोधन दिया। उन्होंने विशेष रूप
से अरुणाचल के प्रतिष्ठित साहित्यकार येशे दोरजी थोंगछी के साहित्यिक कृतियों के हवाले
से पूर्वोत्तर के जनजातीय दर्शन एवं संस्कृति को सही मायने में समझे जाने पर बल इिया
और कहा कि मुझे प्रसन्नता है कि मैंने इनकी रचनाओं पर सबसे पहले समीक्षा लिखकर आत्मिक
संतोष प्राप्त किया है।“ प्रो. वेंकेटेश्वर अरुणचाल की नई साहित्यिक पौध से भी ऐसी
ही महत्पूर्ण अवदान की अपेक्षा रखते हुए उनको अपनी रचना-संसार को उत्तरोत्तर समृद्ध
करते रहने का सलाह दिया। भारतीय सिंधी अकादमी के निदेशक और अपनी वाग्मिता के लिए प्रसिद्ध
डाॅ. रवि प्रकाश टेकचंदाणी ने यह स्मरण दिलाते हुए कहा कि हिन्द को सिन्ध से जोड़े बगैर
हिन्दुस्तान की परिकल्पना बेमानी है। विस्थापन और विप्लव की तमाम त्रासदियों को झेलते
हुए भी आज सिन्धी खड़ी है, तो उसके पीछे सैंधव सभ्यता का दर्शन एवं संस्कृति मूल में
है। आज पूर्वोत्तर के जनजातीय संस्कृति एवं दर्शन को भी अपने विस्थापन, दुराव, कटाव,
अलगाव से स्वयं उबरने का प्रयत्न करना होगा जो राष्ट्रनिर्माण की खुराक है और आज की
अनिवार्य जरूरत भी।“ आखिर में
धन्यवाद ज्ञापन इस संगोष्ठी के संयोजक डाॅ. सत्यप्रकाश पाल ने दिया, तो
संचालन डाॅ. जमुना बीनी तादर ने किया। अरुणाचल की सांस्कृतिक परम्परा और लोक-चेतना
की झाँकी सांध्यकालीन सांस्कृतिक कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रस्तुत हुई जिसे हिन्दी
विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के
विद्यार्थियों व शोधार्थियों ने प्रस्तुत किया।