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राजीव रंजन प्रसाद*
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16 नवम्बर को राष्टीय प्रेस दिवस मनाया जाता है। लोकप्रिय अख़बार राजस्थान पत्रिका ने इस वर्ष राष्ट्रीय प्रेस दिवस के मौके पर सम्पादकीय छापने की जगह खाली जगह प्रकाशित किए। इस टिप्पणी के साथ कि, ''आज राष्ट्रीय प्रेस दिवस यानी स्वतन्त्र और उत्तरदायित्वपूर्ण पत्रकारिता का दिन है। लेकिन राजस्थान में राज्य सरकार द्वारा बनाए काले कानून से यह खतरे में है। सम्पादकीय खाली छोड़कर हम लोकतंत्र के हत्यारे काले कानून का पूर्ण मनोयोग से विरोध करते हैं।''
राजस्थान पत्रिका की इस पहलकदमी को अभिनव कहा जाए या कि जज़्बाती निर्णय; यह पत्रिका के रूप-रंग, तेवर-विचार, भाषा-दृष्टिकोण से परिचित लोग भली-भाँति जानते होंगे। पर सवाल तो उठना स्वाभाविक है कि क्या पत्रकारिता आज सचमुच खतरे में पड़ चुकी है। ईमानदारी से बात करने वाले लोगों पर ‘काले कानून’ की बंदिश-अंकुश इतना अधिक है कि एक समाचार-पत्र राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस के मौके पर अपनी सम्पादकीय छापने की जगह रिक्त स्थान छोड़ दे। यदि ऐसा है, तो स्थिति भयावह है। देर-सवेर यह स्वीकार करना ही होगा कि जनतांत्रिक मोर्चे पर हम और हमारी शासकीय प्रणाली पूरी तरह विफल हो चुकी है।
भारत की सार्थक पत्रकारिता से पूरी दुनिया अवगत है। आजादीपूर्व भारत में राजनीतिक चेतना के आरंभ होने और उसके लहर में तब्दील होने के साक्ष्य नहीं मिटाए जा सकते हैं। पत्रकारीय पेशे से ताल्लुक रखने वाले लोगों ने राजनीति की सदा कद्र की है। विचार और दृष्टि से लबरेज़ पत्रकारिता ने आजादीपूर्व राजनीति की नींव रखी। सुधारवादी आन्दोलनों को संगठित होने का मौका दिया। राजनीति कार्यकलाप को प्रचारित-प्रसारित करने में भारतीय भाषाओं के पत्र-पत्रिकाओं ने गंभीर यातानाएँ सही; उनके सम्पादकों और लेखकों को तरह-तरह से प्रताड़ित होना पड़ा; किन्तु राष्ट्र निर्माण की दिशा में उनके बढ़ते कदम ने अपने हाथ पीछे नहीं खींचे। उदाहरणस्वरूप भारतीयों के राजनीतिक संगठनों जैसे 'पूना सार्वजनिक सभा (1870 ई.), ‘इंडियन एसोसिएशन’ (1876 ई.), ‘नेशनल कांग्रेस’ (1883 ई., )‘मद्रास महाजन सभा’ (1884 ई.), भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ (1885 ई.) की राह और लकीर को दीर्घजीवी होने-बनने का भरपूर मौका दिया।
राजनीति की आधुनिक पीढ़ी कई अर्थ-सन्दर्भों में लुटेरी संस्कृति है। वह लुटकर मालामाल होना चाहती है और स्वयं को भारतवासी कहलाए जाने ख़ातिर लालायित भी है। भारतीय राजनीतिज्ञों की सबसे बड़ी दिक्कत उनकी संकर मानसिकता (हाइब्रिड माइंडसेट) है। एक करोड़पति का जन-प्रतिनिधि बनने की महत्त्वाकांक्षा इस बात का पुख्ता सबूत देती है। जनता पर जनता का शासन का अर्थ करोड़पति आदमी का विपन्न लोगों पर शासन हरग़िज नहीं है। आम-आदमी का प्रतिनिधि आम-आदमी नहीं है, तो इसका एकमात्र अर्थ है लोकतंत्र की धरातल गायब है। अब बिना पेंदी के लोटे पर चाँदी लपेटे या सोना; वह आम-अवाम के हक़-हकूक के लिए हमेशा हानिप्रद ही साबित होगी।
मौजूदा पत्रकारिता पर नकेल कसने के लिए आप काले कानून लाइए या लाल-पीली-हरी; पत्रकारिता का वैल्यू-सिस्टम नष्ट होना तय है। इक्कीसावीं सदी की पत्रकारिता वैसे भी अपनी स्वायत्तता बेच खायी है। टेलीविजन की समाचार-संस्कृति ने विचार-विचारधारा को राजनीतिक-आर्थिक दबावों में पीट-पीटकर पहले ही चपटा कर रखा है। तुर्रा यह कि छापेखाने की पत्रकारिता भी अब तेजी से बदलाव की लंपटगिरी से घिरती जा रही है। ऐसे में बचे-खुचे लोग जो जुनूनी और हरफ़नमौला हैं; कब तक टिके रहते हैं, यह भी देखना होगा। .....,
* शेष ‘पत्रकारिता का डायरी-पाठ’ के लिए सुरक्षित
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