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दुनिया के श्रेष्ठ कवियों में शुमार और अरबी भाषा के प्रसिद्ध कवि अदूनीस एक ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने अपनी दृष्टिसंपन्नता के चलते अरबी साहित्य को आधुनिकता बोध से लैस किया। आज दुनिया भर के साहित्यिक हलकों में उन्हें अरबी कविता का पर्याय माना जाता है।
एक गुलाब,
उसका घर है उसकी अपनी खुश्बू
और आहिस्ता-आहिस्ता बहती हवा
उसका बिस्तर
उनकी कविता 'तेवर' से उनके तेवर का पता मिलता है,
मैंने आग का बर्फ़ से घालमेल कर दिया है
मेरे जंगलात को न लपटें समझ पायेंगे न ही बर्फ़
मैं अजनबी और घनिष्ठ बना रहूंगा साथ-साथ...
कवि शीर्षक से उनकी एक कविता,
दुनिया बदरंग होती जाती है
और वह शब्दरूपी औरतों को पढ़ता है
मृत्यु की भांति, वह उन्हें बहकाता है;
जिस किसी का उसने काम तमाम किया
उसे नया जीवन दिया,
इतिहास के पर्दे का बनाया उसने एक और बिस्तर
और उसी में वह पैदा हुआ
रचना समय पत्रिका के संपादक हरि भटनागर अदूनिस की शख़्सित को बयां करते हैं। 1930 में सीरिया के एक गांव में जन्मे अदूनीस ने जब लिखना शुरू किया उस वक़्त दूसरा विश्वयुद्ध ख़त्म हो चुका था। और अमरीका की षड़यंत्रकारी नीति के चलते इज़राइल राष्ट्र की स्थापना ने अरबी अस्मिता को गहरे संकट में डाल दिया था। इसके कारण हर तरफ विस्थापन, निराशा-हताशा और जातीय पहचान के सवाल जनता के दिलो-दिमाग़ में दरार डाल रहे थे।
ऐसे वक्त़ में अदूनीस ने अरबी सियासत में हिस्सेदारी लेकर जो भी रचा वह अरबी जनता के पक्ष में था - उसकी पीड़ा, उसकी तकलीफ़ को ज़बान दी और उन विभाजनकारी ताक़तों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की जो अरबी जनता को एक-दूसरे से काट रही थी।
यही वजह थी कि अपने बाग़ी तेवर के चलते उन्हें जेल की सज़ा भुगतनी पड़ी। इसके बाद उन्हें सीरिया छोड़ना पड़ा और आख़िरकार लेबनान की राजधानी बेरूत में शरण लेनी पड़ी। यहां भी अदूनीस अपने तल्ख-बाग़ी तेवर को लगातार तीव्र करते दिखते हैं। अमरीका के लिए एक क़ब्र कविता सीरीज़ उनके बाग़ी तेवर का अनोखा उदाहरण है,
लफ़्ज़ इसलिए बेजान हो गए कि तुम्हारी ज़बानों ने
नक़लचीपन के नाम पर, बोलने की आदत छोड़ दी
लफ़्ज़? तुम उसकी आग का पता पाना चाहते हो
तो लिखो ! मैं कहता हूं : लिखो
नक़ल करो, मैं नहीं कहता, न ही यह कि उनकी ज़बान को अपनी लिखावट में उतारो
अदूनीस अरबी भाषा के ऐसे लोकप्रिय कवि हैं जिनका कविताओं में एक तरफ उमर ख़य्याम, रूमी, शेख़ सादी, सनाई, अमीर खुसरो का सूफ़िया अंदाज़ है तो वहीं दूसरी तरफ बॉदलेयर, कवाफ़ी, इलियेट और वाल्ट ह्विटमैन की काव्य संवेदना का गहरा असर। बावजूद इसके अदूनीस में दुनिया को देखने का एक ऐसा मॉडर्न नज़रिया है जो पूरी मानवता के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करता है। अदूनीस बेरुत में रहते हैं और 87 साल की उम्र में अभी भी रचना करते हैं।
उनकी एक कविता है 'ज़िद',
एक ज़बान, जिसे उसने सिरजा
उससे दूर छिटक रही है
और एक रौशनी, जो उसके भीतर से फूटी
उसके ख़िलाफ़ बग़ावत का परचम उठा रही है
अदूनीस का मूल नाम अली अहमद सईद है और अपना तख़ल्लुस उन्होंने यूनानी पौराणिकी के एक चरित्र से लिया है। वे कवि होने के साथ ही साहित्यालोचक, अनुवादक, और सम्पादक भी हैं। पेशे से वे शिक्षक हैं और दुनिया के कई मशहूर यूनिवर्सिटीज़ से संबद्ध रहे हैं।
कई डेढ़ दर्जन कविता संग्रहों के अलावा उनकी साहित्य इतिहास और साहित्य आलोचना संबंधी पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं और दुनिया भर में चर्चित हुईं। अदूनीस को कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ा गया और नोबेल पुरस्कार के लिए भी कई बार उनका नाम विचार के लिए पेश किया गया।
वे लिखते हैं कि कविता एक ऐसा काम है जिसकी न कोई शुरुआत होती है न अंत । यह असल में एक शुरुआत का वायदा होती है, एक सतत शुरुआत।
उनकी एक कविता है 'अदूनीस',
कहता है वह :
यह झाड़ी अपनी आदत के चलते
अब भी अपने उरूज पर है,
उसकी तरफ़ जाने वाली राहें एक किताब हैं,
जबकि मैदान है परछाईं
अदूनीस की अनूदित कविताएं रचना समय से साभार.
उनकी एक कविता है 'ज़िद',
एक ज़बान, जिसे उसने सिरजा
उससे दूर छिटक रही है
और एक रौशनी, जो उसके भीतर से फूटी
उसके ख़िलाफ़ बग़ावत का परचम उठा रही है
अदूनीस का मूल नाम अली अहमद सईद है और अपना तख़ल्लुस उन्होंने यूनानी पौराणिकी के एक चरित्र से लिया है। वे कवि होने के साथ ही साहित्यालोचक, अनुवादक, और सम्पादक भी हैं। पेशे से वे शिक्षक हैं और दुनिया के कई मशहूर यूनिवर्सिटीज़ से संबद्ध रहे हैं।
कई डेढ़ दर्जन कविता संग्रहों के अलावा उनकी साहित्य इतिहास और साहित्य आलोचना संबंधी पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं और दुनिया भर में चर्चित हुईं। अदूनीस को कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ा गया और नोबेल पुरस्कार के लिए भी कई बार उनका नाम विचार के लिए पेश किया गया।
वे लिखते हैं कि कविता एक ऐसा काम है जिसकी न कोई शुरुआत होती है न अंत । यह असल में एक शुरुआत का वायदा होती है, एक सतत शुरुआत।
उनकी एक कविता है 'अदूनीस',
कहता है वह :
यह झाड़ी अपनी आदत के चलते
अब भी अपने उरूज पर है,
उसकी तरफ़ जाने वाली राहें एक किताब हैं,
जबकि मैदान है परछाईं
अदूनीस की अनूदित कविताएं रचना समय से साभार.
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