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राजीव रंजन प्रसाद
भारतीय नाटक रचनाधर्मिता के जिस आयाम को छूते हैं, वह बहुपरतीय है, बहुस्तरीय है, तो बहुभाषिक भी। यह ज़मीन के भूगोल पर खड़ा अवश्य होता है, किन्तु इसकी दृष्टि सार्वकालिक, सार्वदेशिक और सार्वभौमिक हुआ करती है। नाटक का सर्वप्रमुख लक्षण है-मानवीयता। इसी से जुड़ी अन्य चीजें हैं: मार्मिकता, करुणा, लगाववृत्ति, सहोदरपन, साझापन, सामूहिकता, आधुनिकता, प्रगतिशीलता आदि। इसीलिए नाटक जनसमाज का आईना बन यथार्थ का जो अक़्स उभारता है उसमें हम अपने देशकाल, परिवेश, पारिस्थितिकी-तंत्र, समाज, समुदाय, संस्कृति आदि सबसे साक्षात्कार पाते हैं; उन्हें पढ़ते-देखते हुए अभिभूत होते हैं। इस औंरा में हम अपने जीवन-मूल्य, आदर्श, नैतिकता, शुचिता, रीति-नीति, प्रथा, मान्यता, कथा, लोक-धारणा सबको समाहित पा अपने होने की सार्थकता को रंग-रूप या कि वास्तविक आकार देते हैं।
यह अलग से कहना पहले कहे हुए को दुहराना मात्र होगा। लेकिन कई बार दुहराना हमारी विवशता हो जाती है। तब तो और जब उत्तर-पूर्व की प्रतिष्ठित हिंदी में ‘दो रंगपुरुष-मोहन राकेश: गिरीश कर्नाड’ की सद्यः प्रकाशित कृति आपके सामने हो और उसकी लेखिका साथगोई की प्रोफेसर हो। डाॅ. जमुना बीनी तादर अरुणाचल प्रदेश के राजीव गाँधी विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाती हैं। हमदोनों हिन्दी विभाग में हैं और बीनी जी मुझसे सीनियर हैं, किन्तु आपसी ‘फिल इन दि गैप्स’ में लाड़-प्यार बेशुमार है। अध्ययन-अध्यापन के अतिरिक्त अपनी सक्रियता और जवाबदेहपूर्ण सांगठनिक कार्य का दायित्व निर्वहन करने की वजह से जमुना बीनी कई पुरस्कारों से सम्मानित हैं तो विभिन्न जनमाध्यमों से उनका याराना पुराना है। सम्प्रति लेखिका यह उनकी पहली आलोचनात्मक पुस्तक हैं जो धुर हिंदी और कन्नड़ के दो महान रंगकर्मियों मोहन राकेश और गिरीश कर्नाड के रंगकर्म पर केन्द्रित है। जमुना जी तुलनात्मक शोधाध्यन द्वारा बेबाक चित्रण करती हैं। इस बारे में प्रो. एम. वेंकटेश्वर की टिप्पणी समीचीन है, जिसे उन्होने इस पुस्तक की भूमिका में ‘एक चिंतनशील शोधग्रंथ’ शीर्षक से लिखा है, ‘‘डाॅ. जमुना बीनी तादर द्वारा रचित प्रस्तुत शोधग्रंथ ‘दो रंगपुरुष-मोहन राकेश: गिरीश कर्नाड’ भारतीय नाटक-रंगमंच के दो श्लाका पुरुषों के नाट्यचिन्तन और रंगकर्म का गंभीर आलोचनात्मक अनुशीलन प्रस्तुत करता है।"
इस वक्त ‘न्यू इंडिया प्लान’ के तहत भारत की बहुसांस्कृतिकी की दुहाई देने वाले ढेरों हैं, लेकिन अरुणाचल के करीबी बौद्धिक-जन गिनती के लायक। दिल्ली के इलाके को पूरा देश और विश्व मानकर उसके ही लिखंत-पढ़ंत को सम्पूर्ण भारतीय साहित्य घोषित करने वाले साहित्यिकों के लिए यह पुस्तक एक प्रकार से चुनौती की तरह है। वजह कि इस देश में अरुणाचल की ज्ञान-परम्परा से सुपरिचित लोगों की संख्या थोड़ी है फिर जमुना बीनी को लोग पहले से ही जानते हों, यह कहना मुश्किल है। यद्यपि समीक्ष्य पुस्तक को पढ़ते हुए प्रांजल भाषा और भाषा के शिल्प-विधान हमें लेखिका के हिन्दीतरभाषी होने का संकेत नहीं करते हैं। भाषा-प्रवाह की दृष्टि से जमुना जी ने सहजता का निर्वाह किया है, तो वैचारिकता के अंध-मोह या कि आयातीत-फैशन में न बहते हुए अपनी रंगभाषा में इस कृति को अपने पाठकों के लिए बेहद पठनीय बनाकर प्रस्तुत किया है। ‘दो रंगपुरुष-मोहन राकेश: गिरीश कर्नाड’ की भूमिका में इस बात का उल्लेख करते हुए प्रो. एम. वेंकटेश्वर कहते हैं, ‘‘लेखिका की तुलनात्मक दृष्टि दोनों ही महान साहित्य एवं संस्कृतिकर्मियों की रचनाधर्मिता और उनके रंगमंच के प्रति प्रतिबद्धता को विश्लेषित करने में सफल हुई है।''
इस सफलता के पीछे छुपे राज को लेखिका ने बड़े हौलेपन से कहा है मानो अपने भीतर की खिड़की खोल रही हों, ‘‘जहाँ तक राकेश और कर्नाड पर मेरा लिखने का प्रश्न है उसका उत्त् है राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, दोईमुख में जब मैं एम.ए. की छात्रा थी, उस दौरान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली तथा हिन्दी विभाग के संयुक्त तत्त्वाधान में पैंतालिस दिवसीय रंगमंच प्रशिक्षण शिविर का आयोजन हुआ। उस शिविर में मैंने भी प्रतिभागी के रूप में भाग लिया था। इस शिविर के दौरान सभी प्रतिभागियों ने ‘सीन वर्क’ के लिए हिंदी के प्रख्यात नाटककार मोहन राकेश को चुना और उनका चर्चित नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ की प्रस्तुति की। शिविर की सफलतापूर्वक समाप्ति के पश्चात मेरी नाटकों में रुचि बढ़ने लगही। फलतः मैंने मोहन राकेश के अन्य नाटकों का भी गहरा अध्ययन किया। आगे मुझे कन्नड़ के मूर्धन्य नाटककार गिरीश कर्नाड को पढ़ते हुए दोनों में कई सारी समनानताएँ दृष्टिगोचर हुईं, जो यह सिद्ध करता है कि भिन्न-भिन्न भाषा और बोली वाले इस देश की अन्तरात्मा भाव के स्तर पर एक है और भाषा की भिन्नता से भारतीयता में कोई अन्तर नहीं आता। भारत में सृजित साहित्य का स्वरूप मूलतः एक है। यह पुस्तक इसी विचार का प्रतिफलन है।’’
09 मई, 2017 को जब यह पुस्तक राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के ए.आई.टी.एस. सम्मेलन कक्ष में विमोचित हुई, तो जमुना बीनी के शुभचिन्तकों में विश्वविद्यालय परिवार और उनके अपने सगे-सम्बन्धियों के अलावे अरुणाचल के प्रतिष्ठित साहित्यकार और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित येशे दोरजी थोंग्छी विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे। इस लोकार्पण समारोह में हिंदी विभागाध्यक्ष डाॅ. ओकेन लेगो, भाषा संकायाध्यक्ष प्रो. हरीश कुमार शर्मा ने इस पुस्तक पर अपनी बात रखी। मुख्य अतिथि के रूप में राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति प्रो. तामो मिबाङ ने अपनी शुभाशंसा जताई और इस पुस्तक को पूरे अरुणाचल के लिए गौरव और विश्वविद्यालय के लिए विशेष उपलब्धि के रूप में गिना। लेखक वाई. डी. थोंग्छी ने अपने वक्तव्य में कहा कि जमुना जी इस पुस्तक को लिखने में जिन दिनों जुटी थीं हमें लग रहा था कि हमारा एक सक्रिय सांस्कृतिक-साहित्यिक दूत भूमिगत हो गया है। आज यह क्षण उसी त्याग, समर्पण और एकांत में बरते चिन्तन का प्राप्य है।
इस पुस्तक की बड़ी विशेषता यह है कि यह अनावश्यक वैचारिकी और सैद्धान्तिक-विवेचन का स्वांग नहीं करती जिसकी अपेक्षा आजकल अकादमिक शोध-कार्यों में की जाती है। आकर्षक कलेवर और आँखों को थोड़ा भी न खटकने वाला ‘दो रंगपुरुष-मोहन राकेश: गिरीश कर्नाड’ का आवरण-चित्र इस बात के लिए साधुवाद का पात्र है कि इस पर जो दो चित्र बेहद पास-पास लगाए गए हैं वह अपनी निकटता में संवादधर्मी हैं और परस्पर ‘इनवाॅल्व’ मालूम देते हैं। छपाई में उत्कृष्ट इस पुस्तक को ‘हार्ड बाउंड’ (कीमत: 450/- रुपए मात्र) के साथ ‘पेपरबैक’ (कीमत: 150/ऋ रुपए मात्र) में पाठकों के हाथ में सौंपने के लिए ‘रीडिंग रूम्स’ प्रकाशन भी साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने डाॅ. जमुना बीनी तादर को अरुणाचल से नोटिस करते हुए दिल्ली के प्रकाशन-संसार में जगह दी है।
इस पुस्तक के बारे में सुधि पाठकों के अतिरिक्त नाट्य-परम्परा से जुड़े विद्याार्थी, शोधार्थी इसमें अभिरुचि रखने वाले पुस्तकप्रेमी तो चर्चा-विमर्श करेंगे ही; वे लोग भी जो हिन्दी को हिन्दीपट्टी की ठेकेदारी तक ही सीमित करके नहीं देखते; वह अपनी आलोचना-कर्म के माध्यम से अपना आशीर्वचन लिखे-छापे के अक्षरों में प्रस्तुत करेंगे; ताकि भारत की बहुआयामी, बहुधर्मी लेखन-परम्परा में नए पुष्प शामिल हो सकें; वह भी अपनी योग्यता, प्रतिभा और लेखकीय ताकत द्वारा स्वतन्त्र और माकुल जगह बना सकें। इसी आशा एवं प्रत्याशा के साथ हम उनकी लेखनी को और उत्तरोत्तर धारदार, पारखी और सहज आत्मीय होने की कामना करते हैं।
यह बुक कहाँ से मिलेगी
ReplyDeleteमैं वर्धा में हूँ और ये बुक मुझे चाहिए थी। मेरे एम, फिल के रिसर्च में बहुत उपयोगी बुक होगी ।
ReplyDeleteधन्यवाद नरेन्द्र जी! यह पुस्तक आप यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं :
Deleteरीडिंग रूम्स प्रकाशन, यूनिटी अपार्टमेंट,
रोहिणी सेक्टर-18, नई दिल्ली-110085
E. mail : edit.readingrooms@gmail.com
यह बुक क्या मुझे ऑनलाइन मिल सकती है
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