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राजीव रंजन प्रसाद
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‘मौन भी अभिव्यंजना है
जितना तुम्हारा सच है
उतना ही कहो।’
- अज्ञेय
सचेतन मनुष्य के भीतर जीने की चाह उत्कट है। उसकी प्राणवत्ता बेहद शक्तिशाली है। प्रकृतितः अपने होने का कारण-बिन्दु मनुष्य खुद है; इसीलिए वह अपनी इयता को बनाए रखने की हरसंभव कोशिश करता है, जी-तोड़ प्रयास जारी रखता है। यह जिजीविषा ही है जिसमें ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ की अन्तर्भावना समोयी हुई है। मनुष्य सामाजिक परिसम्पत्ति बाद में है; प्राकृतिक जीव-सम्पदा पहले है। राजनीतिक और आर्थिक नफे़-नुकसान की सोचने वाला तो एकदम आखिर में है। आज यह साँचा उलट गया है। निकष बदल गए हैं। अब शब्द ही सत्य हैं; उसकी कर्मठता और अर्थवत्ता नहीं। ‘‘कर्म से शब्द का अलगाव पहले वैसा न था जैसा आज है। इस बीच कर्म से शब्द की आत्मीयता को तोड़ने पाली प्रक्रिया की ऐसी आँधी चली है कि शब्द की संस्कृति और उसकी सार्थकता संकट में पड़ गई है। उस प्रक्रिया ने शब्द को कर्म से ही नहीं, अर्थ से भी अलग किया है। हाल के वर्षों में व्यक्ति के जीवन और समाज में कर्म के प्रेरक और मार्ग-दर्शक अनेक शब्दों के अर्थ बदले हैं, बिगड़े हैं; बल्कि भ्रष्ट और नष्ट भी हुए हैं।’’ (प्रो. मैनेजर)
यह संकट इतना गहन है कि कोई राह नहीं सूझ रहा। इस बारे में दार्शनिक-भाव से बोलने वाला भी झूठ उवाच रहा है। जबकि शब्दार्थ से अलगाव अथवा विलगाव का सीधा परिणाम समाज की सेहत पर पड़ता है। यह समझना उतना ही जरूरी है; जितना हम पदार्थ और ऊर्जा के परस्पर सम्बन्ध को समझते हैं। अभी यह देखें कि रोजमर्रा की समस्याओं में इज़ाफा, घटनाओं में बढ़ोतरी, आसन्न संकटों में अँधाधुँध वृद्धि, आपसी विवाद, मनमुटाव, हिंसक झड़प, लूट, हत्या, दंगा-फ़साद, आतंक, युद्ध आदि सार्वजनिक कारोबार बन चुके हैं जिसके अन्दर मानवीय समाज घुट रहा है। मानुषिक जीवन इस घोर संत्रास से त्राहिमाम्-त्राहिमाम् करता दिखाई दे रहा है। तकनीकी-प्रौद्योगिकी का उन्नत संसार अर्थात् कृत्रिम दुनिया जिस पर हमारा भरोसा इन दिनों बढ़ा है; वह बिल्कुल असहाय है। आज की स्मार्ट-पीढ़ी जो स्मार्ट-फोन में रात-दिन नधायी हुई है; के पास इन चुनौतियों से सामना करने का कौशल नहीं है, सूझ-बूझ और दृष्टि तो बिल्कुल नहीं। युवतर पीढ़ी अलग किस्म के तिलस्मी ढोंग और पाखण्ड में फँसी है। उसके ऊपर ‘डिजीटल’ सम्मोहनास्त्र इतना जबर्दस्त है कि उसका वर्तमान के प्रति कोई भाव-बोध और विचार-बोध नहीं है। जबकि यह कोई सर्वमान्य हल अथवा समुचित निदान नहीं है। नतीजतन, युवा पीढ़ी की प्रतिक्रिया (अकर्मण्य, किंकर्तव्यविमूढ़, निष्कम्प, निष्प्रभ आदि) मौजूदा पारिस्थितिकी-तंत्र से सिर्फ पलायन है, उनका मुकाबला हरग़िज नहीं।
मूल्य आधृत संस्कृति की बात यहीं उठ खड़ी होती है। आत्मबल तथा आत्मविश्वास से पूरित इतिहास-बोध की ओर देखने तथा उस ओर मुड़ने की जरूरत यहीं आन पड़ती है। अक्सर हम पूछ बैठते हैं-‘लोक-विश्वास में क्या है?’, ‘बौद्ध वाङमय में क्या है?’, ‘ऋग्वेद में क्या है?’, ‘अथर्ववेद में क्या है?’, ‘ब्राह्मणों में क्या है?’, ‘उपनिषदों में क्या है’ आदि-आदि। यह हमारे अपढ़ नहीं कुपढ़ होने की निशानी है। निरक्षर नहीं, हमारे अज्ञानी होने का प्रमाणपत्र है। यह सच है, हर तरह के अंधविश्वास, कुरीति, प्रथा, दकियानुसी सोच, अवैज्ञानिक क्रिया-कलाप और असंगत मान्यताओं आदि का समूल नाश होना मानवता का हित-रक्षक है। यह निरोग जीवन हेतु बेहद जरूरी कदम है। लेकिन स्तुत्य सांस्कृतिक-विधान से मुँह फेर लेना कहाँ तक सही है? हमें इस बात को समझना होगा कि हमारी संस्कृति में अनुस्यूत बहुत सारी चीजें अन्यत्म महत्त्व की हैं। उनसे न तो किनारा कसना संभव है और न उन्हें दरकिनार किया जाना वाज़िब है। हमें बल देकर यह विचार करना होगा कि क्योंकर मिथक, प्रतीक, संकेत, आद्यबिंब आदि ने भारतीय हृदयस्थली में वरीय स्थान प्राप्त किया है। कुमारस्वामी की चिंतन-परम्परा का उल्लेख करते हुए मनीषी साहित्यकार विद्यानिवास मिश्र उचित ही सवाल उठाते हैं कि-‘यक्ष ने क्यों एक जीवन के सूत्र-रूप में, जीवन की यात्रा के रूप में हमारे पूरे चिन्तन में, कला-सृष्टि में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है।’’ आगे उन्होंने स्वयं कहा है, ‘‘किसी भी अभिप्राय या मिथक को सम्पूर्णता में देखने की जरूरत है। प्रतीक कैसे रचे जाते हैं, कैसे मिथक का विस्तार होता है, उस विस्तार में कैसे नई सृष्टि हो जाती है, संसार ही नया बदल जाता है।’’
हर चीज में कार्य-कारण-सम्बन्ध खोजने वालों को विज्ञान और तर्क से परे जाकर सोचने की जरूरत है। यद्यपि व्यष्टिगत-मूल्य एवं व्यक्तिगत-रक्षा को भारतीय दृष्टि में सर्वोपरि माना गया है, तथापि ‘विश्व-मंगलकामना’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के लिए सर्वस्व उत्सर्ग कर जाना अधिक श्रेयस्कर है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जी. लेबान का कहना है कि-‘‘मनुष्य केवल तार्किक प्राणी ही नहीं है, वह अपने संवेगों एवं भावनाओं के अनुरूप अपने अतार्किक एवं अविवेकपूर्ण वस्तुओं में भी विश्वास करता है।’’ इस विश्वास में लोकहित समाहित है, तो सामाजिक उन्नयन का सामूहिकता-बोध अन्तर्भूक्त है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री दुर्खीम के अनुसार, ‘‘ईश्वर और मनुष्य के बीच वही सम्बन्ध है जो मनुष्य और समाज के बीच है।’’ ध्यातव्य है कि इस तरह के भाव-बोध एवं विचार-बोध हमारे भीतर ही उमगते हैं। कई बार हम इसे ‘अन्तरात्मा की आवाज़’ कहते हैं जो हमारी आन्तरिक उद्गारों, उद्भावनाओं, उदात्त संकल्प-विकल्पों को पूर्णकाय बनाते हैं। यह वह मूल उद्गम स्थान है जहाँ ‘आत्म’ की चेतस-सत्ता निवास करती है। स्थूल-सूक्ष्म विवेक से परिचालित मनुष्य की यह वह मुख्य धुरी है जहाँ ‘वाक्’ प्रथमतः संवलित-संवेदित होता है; तदुपरान्त अभिव्यक्त-अभिव्यंजित। सचाई के सम्प्रत्यय वाक् में अभिव्यक्त हों या न हों, किन्तु वे अंतःप्रकाशित रहते अवश्य हैं; क्योंकि ‘आत्म्’ से साक्षात्कार अथवा उसका दर्शन इसी लौ में संभव है। इस लौ के नानाविध-बहुविध रूप हैं। यथा: भाव, संवेग, संवेदना, स्वर, लय, गूँज, ओज, नाद, ध्वनि, आवाज़ आदि। ध्वनिगुण और शब्दगुण के इस मिश्रित स्वरूप को ‘आत्म’ की अंतःप्रकृति कहा जा सकता है। इनके चार भेद या स्तरीकरण हैं-1) परा, 2) पश्यन्ती, 3) मध्यमा और 4) बैखरी; और ये सभी ‘आत्म’ के ही उन्मीलन अथवा उसके उद्विकास का संयुक्त-सामूहिक परिमाण हैं।
मूल्यतः सामाजिक व्यक्तित्व हमारी आत्मा है जो न तो पूर्णतया स्वायत है और न ही निरपेक्ष। अर्थात् हमारा अन्तर्जगत (मनोजगत) बाह््य से उसी तरह संयुक्त-संपृक्त है जिस तरह शब्द और अर्थ का आपसी तादात्मय और सहकार-भाव ‘वाक्’ में सन्निहित है। ‘वाक्’ की उत्त्पति के सम्बन्ध में भारतीय धारणा उच्चतर है। भारतीय वैयाकरण के अनुसार, जहाँ ‘वाक्’ उत्पन्न होता है वह स्थान ‘स्फोट’ का है जो ‘स्फट’ के रूप में आर्भिभूत है। पतंजलि ने ‘महाभाष्य’ रचते हुए उच्चतर वाक् (स्फोट) सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। वैयाकरण ‘स्फोट’ उस अर्थबोधक शब्द को कहते हैं जो मानसिक रूप से प्रकट होता है। स्फोट सिद्धांत अपनी मूल संकल्पना में शब्द और अर्थ दोनों को मानव की आंतरिक संरचना में निहित मानता है। भर्तृहरि ने पतंजलि के सिद्धान्त का विस्तार किया और कैय्यट, नागेश आदि वैयाकरणों ने उनका अनुसरण किया तथा यह प्रतिपादित किया कि हम जो ‘भाषा’ बोलते हैं, केवल वही भाषा नहीं है। हम जो बोलते हैं, वह केवल ध्वनिगुण है जो शब्दार्थ का निर्माण करती है। ‘‘जिस प्रकार पदार्थ और शक्ति परस्पर परिवर्तनीय हैं अर्थात् एक ही तत्त्व कभी स्थूल रूप से अणु होता है, तो कभी विशुद्ध ऊर्जा (इनर्जी), उसी प्रकार (साहित्य, काव्य, शास्त्र, ग्रंथ आदि) शब्द और अर्थ का क्रम भी चलता है।’’ भारतीय भाषिक-दृष्टि इस बात से सहमत है कि मनस-प्रक्रिया के अन्तर्गत स्फोट या स्फुरण होना निश्चित है जो भीतरी प्रत्ययों के संयोजन से भाषिक उड़ान लेना चाहता है और सदैव पात्र की तलाश में रहता है। संचार की इस स्फूर्त प्रक्रिया में किसी पात्र के न मिलने पर वह स्वयं से आत्मालाप (मोनोलाॅग) करने लगता है। दूसरी तरफ शब्द सम्प्रेषित होते ही लोक-वस्तु या लोक-संपत्ति हो जाते हैं जिसमें विषय, सन्दर्भ, देशकाल, मूल्य, विचार, प्रतीक, मिथक आदि से भीने-गुँथे अर्थबिंब सर्वाधिक होते हैं। प्रकट रूप में शब्दार्थ का रूपायन कर्म तथा व्यवहार में होता है जिसकी संभाव्य चेतना साहित्य द्वारा अपना मार्ग प्रशस्त करती है। साहित्य वैसे भी कोई अभौतिक अथवा आध्यात्मिक वस्तु नहीं है। यह संभाव्य चेतना से पूरित समवाय है। जीवन-मूल्य एवं मानव-मूल्य से सम्बद्ध मानुषिक बीजतत्त्व है जिसे साहित्यिक मूल्य कहा जाना श्रेयस्कर होगा। साहित्य लिखित-अलिखित बहुविध कार्यकलापों, गतिविधियों, अनुष्ठानों, प्रयोजनों, प्रयुक्तियों आदि का प्रामाणिक दस्तावेज है; अर्थपूर्ण संधान है। अपने इसी शीलगुण के कारण साहित्य सदैव प्रतिपक्ष में जाता है क्योंकि सत्ताओं के ऊपर प्रश्नचिहृ खड़ा करते हैं। साहित्य कभी किसी की स्वीकृति-अस्वीकृति पर निर्भर नहीं करता है। अतएव, साहित्य जब लीलामंच पर प्रवेश करती है, तो उसकी मर्मांतक चीख देर तक गूँजती है; उसकी मुट्ठियाँ विद्रोह में तनी हुई दिखाई देती है। आलोचक मैनेजर पाण्डेय की दृष्टि में, ‘‘भाषा साहित्य का साधन है, माध्यम है। भाषा सामाजिक संपत्ति है। वह मनुष्य की जीवन-प्रक्रिया में बोध और सम्प्रेषण का माध्यम बनती है।...भाषा क्रियाशील मनुष्य के यथार्थ से सम्बद्ध की अभिव्यक्ति का साधन है। मनुष्य क्रियाशील जीवन में ही संवाद का आकांक्षी होता है। वह भाषा के माध्यम से अपने विचारों एवं अनुभूतियों की अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण करता है।’’
‘वाक्’ आधृत संचार-बोधक सत्ता से इतर होकर देखें तो इस शब्दज संसार में भाषा ही सर्वस्व है, यह धारणा ग़लत है। भाषा के बिना भी प्राणशक्ति की इयता अर्थात् उसकी उपस्थिति देदिप्यमान है। यह भाषेतर तत्त्व है जिसकी अभिव्यंजना मौन है। अर्थात् यह भाषेतर मौन की स्वतन्त्र स्थिति है। अभिव्यंजकता जिसे शब्द का प्राण-तत्त्व माना जाता है; मौन के लिए भी समानधर्मा प्रयुक्त होता है। तत्त्वतः ‘‘चित्त का शांत होना मन का मौन होना है। वाणी मन से ही अनुप्रेरित होकर क्रियाशील होती है। मौन की स्थिति में वाक्-शक्ति सुषुप्ति में स्थगित रहती है, लेकिन उसका लोप नहीं होता। मौन मनुष्य म नही मन भाषण करता है।’’ अस्तु, शब्दार्थ आधारित अभिधा, लक्षणा और व्यंजना से भिन्न कुछ ऐसा है जो गोचर नहीं है, मूर्त नहीं है; लेकिन दृष्टिपथ में आलोकित-प्रकाशित अवश्यमेव है। ‘भाषेतर मौन’ की अवस्था इसी को कहते हैं। यहाँ व्यंजना निषिद्ध नहीं, निःशब्द है। अर्थात् यहाँ जैविक-सत्ता गौण है। घटना सन्दर्भित क्रिया-प्रतिक्रिया गायब है। वाद-विवाद-संवाद विषयक तत्त्व अनुपस्थित है। यद्यपि मन-मस्तिष्क की चेतस इकाइयाँ निरुत्तर हैं; लेकिन भीतरी संज्ञान-बोध, संकल्प-विकल्प की वेधकता, आवेग, ज्ञानात्मक संवेदन, संवेदनात्मक ज्ञान आदि उच्चतम कोटि पर संयोजित-संचालित हैं। ‘‘मौन में चित्त की संज्ञाशून्यता का प्रसंग उपस्थित नहीं होता, संज्ञा वहाँ स्थगित या स्तब्ध हो सकती है, शून्य नहीं; क्योंकि आत्मचेतना वहाँ किसी न किसी रूप में बनी रहती है।’’
स्पष्टतया ‘मौन’ भाषिक पंगुता नहीं है, अपितु शब्दार्थ की पराशक्ति है जहाँ मौन दृश्य होता है; शेष सारी इकाइयाँ अदृश्य। उदाहरण से समझें, तो हम एक ही समय में कई विषयों के साथ आसक्त होते हैं। कई भिन्न-भिन्न अर्थछवियों अथवा अर्थच्छटाओं का मन ही मन स्मरण और उनका दृश्यांकन करते हैं। चेतस मन एकसाथ कई रूपाकृतियों के साथ जुड़ता चला जाता है। हम प्रत्यक्षतः किसी एक के बारे में शांतचित्त हो विचार कर रहे होते हैं और उसी क्षण अपने बच्चे के स्कूल-बस से लौटते हुए देख रहे होते हैं या कि रसोई में रखे जूठे बरतनों के बारे में सोच रहे होते हैं। यह भाषेतर मौन की सजीव स्थिति है। एक ऐसा क्रियाकलाप जिसमें चेतन से अधिक अचेतन सक्रिय होता है। पूर्णतया गतिमान। इस परोक्ष दृश्यबोध या उसकी गतिमानता को हम अस्वीकार कर सकते हैं; यदि नहीं तो वाक्-व्यंजना के अतिरिक्त भाषेतर मौन की संगति अपनेआप में पूर्णतया सही है। आचार्य शिवबालक राय ‘मौन’ के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण बात उल्लिखित करते हैं, ‘‘आदिकाल में मनुष्य वस्तुगत प्रतीकों के माध्यम से चिन्तन करता होगा; क्योंकि तब शब्द का आविष्कार नहीं हुआ था। अतएव, मौन-शैली की अभिव्यक्ति में प्रतीक या अप्रस्तुत विधान आवश्यक है। आदिम मौन की भाषा प्रतीक है।’’
समग्रतः दोनों एकमेक हैं; उनमें पूरकत्व का संहति-भाव है। पृथकत्व न होने के कारण ही वैयाकरणों ने मौन संकल्पित वाक् को ‘ब्रह्म’ की संज्ञा से अभिहित किया है।