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हिन्दी साहित्य के इतिहास में 14वीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक का समय मध्यकाल कहलाता है। आचार्य शुक्ल ने इस मध्यकाल को दो वर्गों में विभक्त किया है। पूर्व मध्यकाल और उत्तर मध्यकाल। और इसकी समय सीमा बताई है 1375 से लेकर 1700 विक्रम संवत् और 1700 से लेकर 1900 विक्रम संवत्। पूर्व मध्यकाल भक्तिकाल है और उत्तर मध्यकाल रीतिकाल है। आज हम चर्चा करेंगे पूर्व मध्यकाल याने की भक्तिकाल के संबंध में। हिन्दी साहित्य के संदर्भ में भक्तिकाल से तात्पर्य उस काल से है जिसमें भागवत धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु भक्ति आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इस भक्ति आंदोलन में लोकोन्मुख प्रवृत्ति इतनी प्रबल थी कि धीरे-धीरे कई लोकप्रचलित भाषाएं भक्तिभावना की अभिव्यक्ति का माध्यम बनती चली गईं और भक्ति संबंधी विपुल साहित्य की बाढ़ सी आ गई। पहले पहल भक्ति शब्द हमें श्वेताश्वेतर उपनिषद में मिलता है। इसके बाद हम देखते हैं कि ईसा की कई शताब्दीयां पहले से भक्ति परंपरा का विकास हो चुका था। लेकिन हिन्दी साहित्य के संदर्भ में हम जिस भक्तिकाल की बात कर रहे हैं, उसका प्रादुर्भाव 1375 विक्रम संवत् से हुआ जो 1700 विक्रम संवत् तक अवितरत चलता रहा। इस भक्ति आंदोलन की प्रमुख विशेषता है विभिन्नता में मूलभूत एकता और इसकी लोकोन्मुख विराट चेतना जिसके कारण चर-अचर सृष्टि मात्र मानवमात्र ही नहीं पशु-पक्षी, जड़-चेतन सभी इसमें शामिल हैं और सभी को एकसूत्र में बांधने की क्षमता इस भक्तिकाल में है। हांलाकि जो ये विशेषता भक्तिकाल में पायी जाती है, उसके पीछे मूल कारण है भक्ति की दीर्घ लंबी प्राचीन परंपरा। इसके मूल में यह परंपरा तत्कालीन परिस्थितियों के आपद् धर्म के रूप में उपस्थित नहीं हुई थीं। यही कारण है कि हम जो भक्तिकाल के विभिन्न कवि हैं उनके बीच में भी एक सामंजस्य की भावना देखते हैं। नाथ-सिद्ध अलखवादी जोगियों की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले कबीर, नानक, रैदास, दादू आदि निर्गुणी संत हों, या अनहलक के द्रष्टा मंझन, कुतुबन, जायसी, उस्मान आदि सूफी कवि हों, या कृष्ण राधा के कीर्तन का गान करने वाले वल्लभ, हरिदास, सूरदास, नंददास आदि कृष्ण-भक्त कवि हों, या राम-सीता की मर्यादा भक्ति के प्रतिष्ठापक तुलसी हों, सभी कवियों में हम एक सामंजस्य वाली भावना देखते हैं। सभी प्रवृत्ति और निवृत्ति के भी, इहलोक और आध्यात्मिक के बीच सामंजस्य का संदेश देते हैं। ये सभी कवी बाह्य आडंबर का भी विरोध करते हैं और धार्मिक पाखंड का खंडन करते हैं। चरित्र के आदर्श, चरित्र की शुद्धता एवं जीवन की निर्मलता का आग्रह सभी कवियों का है। ये सभी जीवन को समग्रता में ग्रहण करते हैं। और ये सब श्रद्धा और प्रेम से युक्त उस भक्ति के प्रति अनुरक्त हैं, जिसमें भूतदया और विश्वमैत्री की भावना है। और जो समाज के सर्वोच्च वर्ग से लेकर निम्न वर्ग तक के हृदय में उत्साह का संचार करती है।
भक्तिकाल के प्रेरक तत्व
अब हम देखेंगे कि इस भक्तिकाल के प्रेरक तत्व कौन से हैं। आचार्य शुक्ल इस पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि भक्तिकाल का प्रादुर्भाव हिन्दू जाति की उस निराशा और पराजय की भावना से हुआ जो मुस्लिम आतातायियों के राजनैतिक और सामाजिक आक्रमण और विध्वंस के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई थी। क्या ये कथन सत्य है। उनका कहना है कि मुसलमान आतातायियों ने जो हिंदुओं के मंदिर तोड़े और जो अत्याचार किए, उससे निराश जनता के पास ईश्वर की शरण में जाने के अतिरिक्त और कोई ठौर नहीं बचा था। और उनके इस कथन को इतिहास के अन्य ग्रंथों में इतनी बार गलत ढंग से दोहराया गया कि ये धारणा बद्धमूल हो गई कि भक्तिसाहित्य निराशा की प्रतिक्रिया का साहित्य है। यह पराजय का प्रतिनिधि काव्य है। लेकिन यह निष्कर्ष शायद बहुत जल्दबाजी में लिया गया था। इसके पीछे प्र्याप्त शोध नहीं हुआ था। शोध के उपरांत जो स्थिति हम पाते हैं, उसमें हम देखते हैं कि भक्तिकाल के साहित्य को हम स्वर्णकाल का साहित्य कहते हैं और किसी भी स्वर्णकाल का साहित्य निराशा की प्रतिक्रिया हो ही नहीं सकता,पहली बात। दूसरी बात मुस्लिम आतातायियों के जो आक्रमण हुए वे उत्तर भारत में हुए। इतिहास इसका गवाह है। और भक्ति का जो प्रार्दुभाव है वह दक्षिण भारत में हुआ। ये कैसे मानें कि आक्रमण या अत्याचार उत्तर भारत झेल रहा था और प्रतिक्रिया दक्षिण भारत में जाकर हो रही थी। अतः यह कहना न्यायसंगत और तर्कसंगत नहीं है कि भक्तिकाल निराशा की प्रतिक्रिया है। वेबर, कीथ, ग्रियर्सन आदि पाश्चात्य इतिहासकार कहते हैं कि भक्तिकाल के मूल में ईसाई धर्म है। यानी भक्तिकाल ईसाई धर्म की देन है। यहां तक कि वे कृष्ण को क्राइस्ट का भी रूपांतर मानते हैं। डाॅ.ताराचंद, हुमायूं, अकबर आदि इतिहासकार कहते हैं कि भक्तिकाल मुसलमाल संस्कृति की देन है। लेकिन ये सारे कथन अतिव्याप्ति से ग्रस्त हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और अनेक विद्वानों ने दृढ़तापूर्वक इस चीज को खारिज करते हुए यह स्थापना व्यक्त की कि भक्तिकाल भारतीय दर्शन की अविच्छिन्न धारा का अंग है और उसे जो शक्ति,जो बल और जो ताकत प्राप्त हुई है वो भारत की दार्शनिक, सांस्कृतिक चेतना से ही प्राप्त हुई है। अतः इसमें जो शक्ति काम कर रही है वह धनात्मक है, सृजनात्मक है, कहीं से भी वह प्रतिरक्षात्मक व अभावात्मक नहीं है। यह और बात है कि तत्कालीन परिस्थितियों ने उसके विकास में्र, उसके पल्लवन में अनुकूल अवसर जुटाये।
भक्तिकाल के भेद
उपासना भेद की दृष्टि से इस भक्तिकाल को जब हम देखते हैं तो इसके अंतर्गत दो भेद किए गए सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति। जहां भक्ति सुगण, साकार और सविशेष के प्रति है वह सगुण भक्ति है और जो निराकार निर्विशेष के प्रति है वह निर्गुण भक्ति है। सगुण भक्तिवाले अवतारवाद में विश्वास रखते हैं जबकि निर्गुण भक्तिवाले कण-कण में ब्रह्म को देखते हैं। सगुण भक्तिवालों के लिए भगवद्अनुग्रह का भरोसा है, जबकि निगुर्ण भक्तिवालों के लिए एक आत्मविश्वास का ही बल है। फिर सगुण और निर्गुण फिर दो-दो वर्गों में बंट गए। निर्गुण भक्ति के दो वर्ग हैं - संतमार्गी शाखा और प्रेममार्गी शाखा। और सगुण भक्ति शाखा के दो वर्ग हैं राम मार्गी शाखा और कृष्ण मार्गी शाखा। भक्तिकाल को अपनी संपूर्णता में समझने के लिए ये आवश्यक है कि हम प्रत्येक शाखा को विस्तार से समझें। सबसे पहले हम चर्चा करेंगे निगुर्ण संप्रदाय की। संत काव्य परंपरा पर। संत काव्य परंपरा को पहले पहल आचार्य शुक्ल ने निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा के नाम से पुकारा। क्या यह नाम उचित और सही साबित हुआ ? जब हम इसे ज्ञानाश्रयी शाखा कहते हैं तो इसका मतलब है कि यह शाखा, यह साहित्य पूरी तरह से ज्ञान पर आश्रित है और प्रे्रमशून्य है। यह धारण भ्रम उत्पन्न करती है। क्योंकि जब हम इस साहित्य को विस्तार से या विहंगम दृष्टि डालते हैं तो यह साहित्य हमें कहीं से भी प्रेमशून्य दिखाई नहीं पड़ता। सत काव्य परंपरा के प्रतिनिधि कवि कबीरदास कहते हैं ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय यानी कि प्रेम में सारा ज्ञान निर्वासित हो गया, पर्यवसित हो गया। तब हम इसे मात्र ज्ञानमार्गी शाखा कैसे कहे? डाॅ. रामकुमार वर्मा ने उसके लिए नाम सुझाया संतकाव्य परंपरा और यह नाम तर्कसंगत जान पड़ा और सर्वसम्मति से स्वीकार भी कर लिया गया।
अब हम चर्चा करेंगे कि इस संत मत के प्रेरक तत्व क्या हैं ? अपभ्रंश के जैन मुनि एवं नाथों के उपदेशपरक मुक्तक काव्य परंपरा की कई विशेषताओं ने संत काव्य को प्रभावित किया। जैसे परंपरा का विरोध, बाह्याचारों का खंडन, रूपक उलटबांसी का प्रयोग और जनभाषा को अपनाना। ये जो अपभ्रंश साहित्य की विशेषताएं थीं। इन विशेषताओं से संत काव्य प्रभावित था। इधर दक्षिण में वैष्णव आचार्य जैसे रामानुज, निंबार्काचार्य, मध्वाचार्य और रामानंद आदि भक्ति का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। और कबीर, रैदास,पीपा आदि रामानंद के शिष्य रहे। अतः वैष्णव भक्ति ने भी संत काव्य परंपरा को प्रभावित किया। इसी वैष्णव भक्ति के प्रभाव से इन्होंने राम, केशव, हरि, गोविंद आदि शब्दों का प्रयोग ब्रह्म के पर्याय रूप में किया। कबीर को अपने गुरु से जो गुरुमंत्र प्राप्त हुआ, वह राम नाम ही है और उस राम नाम को वे ब्रह्माण्ड में अद्वितीय वस्तु मानते हैं। उस राम नाम के बदले में गुरुदक्षिणा देने के लिए ब्रह्माण्ड में कोई चीज दिखाई नहीं पड़ती। वे कहते हैं राम नाम के पटतरे देवे को कछु नाहिं, क्या ले गुरु संतोखिए हौंस रही मनमाहिं। यहां एक बात और स्पष्ट समझ लेनी होगी कि निर्गुणवादियों ने राम, हरि, गोविंद आदि जिन नामों का प्रयोग किया है, ये सगुणवादियों के समान अवतारपरक ईश्वर के लिए नहीं है। ये नाम उन्होंने ब्रह्म के पर्याय रूप में इस्तेमाल किए हैं। कबीर कहते हैं ‘दशरथ सुत जग जेहि जाना, राम नाम का मरम है आना। महाराष्ट्र् में इधर बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में संत काव्य परंपरा का विकास हो गया था। संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव, एकनाथ आदि ने संत काव्य परंपरा को पर्याप्त रूप से पल्लवित और विकसित कर दिया था। यह परंपरा अपभ्रंश से होती हुई हिन्दी काव्य में प्रविष्ट हुई और हिन्दी काव्य में या हिन्दी साहित्य में इसका नेतृत्व किया कबीर ने। इस संबंध में एक उक्ति प्रसिद्ध है कि भक्ति उपजी द्राविड़ी लाये रामानंद, प्रगट किया कबीर ने सप्तदीप नवखंड। हजारीप्रसाद द्विवेदी यह मानते हैं कि कबीर साधना के क्षेत्र में युगपुरुष थे और साहित्य के क्षेत्र में भविष्यद्रष्टा थे।
संत मत को और भी अधिक स्पष्ट समझने के लिए हमें उसकी कुछ प्रमुख प्रवृत्तियां और विशेषताओं पर एक दृष्टि डालनी होगी। सबसे पहली विशेषता संत काव्य परंपरा की यह है कि वे एक ईश्वर के प्रति एकनिष्ठ हैं। वइ ईश्वर, वह ब्रह्म अनिर्वचनीय है, अगम है, अज्ञेय है, अलख है। और उसे सगुण-निर्गुण से परे जाना जाता है। अनिर्वचनीय है, शब्दों में उसे नहीं बांधा जा सकता। पारब्रह्म के तेज कूं कैसा है उपमान । कहिबे की सोभा नहीं, देख्या ही परवान। दूसरी विशेषता संत परंपरावादी कवियों की यह है कि ये अपने आप को किसी धर्म से नहीं जोड़ते। वह धर्म चाहे हिन्दू हो, शैव हो या शाक्त हो, जैन धर्म हो, या बौद्ध धर्म हो, या इस्लाम धर्म हो। सभी धर्मों में धार्मिक संकीर्णता, सांप्रदायिक संकीर्णता की गंध पाते हैं। इसलिए वे अपने आप को इन सब धर्मों से परे रखते हैं। क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य, परम गंतव्य विश्व कल्याण की भावना है। वे वसुधैव कुटुंबकम् से लेकर आधुनिक युग के विश्वग्राम तक की यात्रा अपने हृदय में करते हैं। और इसीलिए वे अपने आपको इन सभी संकीर्ण धर्मों से परे रखते हैं। इसीलिए ये कवि क्रांतद्रष्टा कवि कहे जाते हैं। कबीर में आज भी हमें वहीं ताजगी और टटकापन लगता है, जो छह सौ वर्ष पहले था। इसीलिए वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। तीसरी विशेषता संत कवियों में जो है कि वे बहुदेववाद और अवतारवाद का विरोध करते हैं। चूंकि उनकी निष्ठा एक ईश्वर में है। एकेश्वरवादी है ये, अद्वैतवाद में विश्वास करते हैं। इसलिए बहुदेववाद और अवतारवाद को ये खारिज करते हैं।
संत कवियों पर प्रभाव एवं संत काव्य
संत कवियों पर विभिन्न दार्शनिक और सांस्कृतिक प्रभाव हैं, उसमें हम देखते हैं कि उन पर शंकराचार्य के अद्वैतवाद का, नाथपंथ के शून्यवाद का, इस्लाम धर्म का और सूफी दर्शन का भी प्रभाव पड़ा है। शंकराचार्य और संत कवि इस दृष्टि में एकमत हैं कि आत्मा और परमात्मा विशुद्ध रूप में एक है। शंकराचार्य का अद्वैतवाद जो कहता है अहं ब्रह्मास्मि वही भावना हमें इन संत कवियों में दिखाई पड़ती है। और जो भिन्नता का अहसास कराने वाली चीज है, वह माया है, अविद्या है। सूफी कवियों का या जो सूफी दर्शन में जो प्रेम की अभिव्यंजना है, जो प्रेम का माधुर्य है, वह इन संत कवियों ने ग्रहण किया है। और नाथ पंथ से शून्यवाद, तंत्र-मंत्र की साधना, हठयोग की साधना आदि की प्रेरणा, आदि का प्रभाव इन संत कवियों में आया है। पर यह बात भी स्पष्ट है कि समस्त ज्ञान को, इस समस्त दर्शन को इन्होंने शुष्क ज्ञान अथवा बुद्धि के स्तर पर न ग्रहण करके अनुभूति के स्तर पर ग्रहण किया है। इसलिए वह अद्वैतवाद, यह एकेष्वरवाद इनके यहा पर रहस्यवाद के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। संत काव्य की एक और प्रमुख विशेषता है वह है गुरु की महत्ता। गुरु ईश्वर तक पहुंचाने वाला माध्यम है, पथप्रदर्शक है। क्योंकि इनका ब्रह्म, इनका ईश्वर अज्ञेय है, उस तक जाना आसान नहीं है। अतः गुरु के द्वारा ही वह राह दिखाई जा सकती है। इसीलिए गुरु महिमा का वर्णन करते हुए ये संत कवि अघाते नहीं हैं। सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार। लोचन अनंत उघाड़िया अनंत दिखावन हार।। गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए ये गुरु और परमात्मा में अंतर नहीं देखते और कभी-कभी तो ये स्थिति आती है कि गुरु इनके लिए ईश्वर से भी बढ़कर हो जाता है। कबीर कहते हैं गुरु गोविंद दोनों खड़े काके लागू पायं, बलिहारी गुरु आपनी जिन गोविंद दियो बताय।। संत काव्य परंपरा की एक और प्रमुख विशेषता है कि आध्यात्मिकता के साथ-साथ इन्होंने समाज कल्याण करते हुए एक नयी सामाजिक क्रांति उत्पन्न की। और इस सामाजिक क्रांति में इन्होंने जातिभेद, वर्गभेद और वर्णभेद सबका विरोध करते हुए एक ऐसे आदर्श समाज की कल्पना की, जिसमें कोई भी भेद न रहे और सब एक स्तर पर दिखाई पड़ें। वे कहते हैं कि जाति-पांति पूछे नही कोय, हरि को भजे सो हरि का होय।। इस प्रकार वे उच्च वर्ग के साथ-साथ निम्न वर्ग के लिए भी भक्ति का द्वार खोल देते हैं और एक आदर्श समाज की स्थापना करते हैं। जिसमें रुढ़ियां, परंपरा, रीति-रिवाज, बाह्यकर्मकांड, पशुबलि, तीर्थ, व्रत, छापा, तिलक, रोजा, नमाज इन सभी कर्मकांडों का ये खंडन करते चलते हैं। और इसी संदर्भ में वे पंडित एवं मौलवी दोनों को ललकारते हैं। कबीर ने हिन्दू वर्ग के लिए कहा, पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार, ता ते घर चाकी भली पीस खाये संसार।। और मुसलमानों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, काकर पाथर चुनि के मस्जिद लेइ चिनाय, ता पर चढ़ मुल्ला बांग दे बहिरा हुआ खुदाय।। क्योंकि इनका यह मानना था कि यह वर्ग भेद, यह धर्म भेद समाज को जोड़ता नहीं तोड़ता है और एक-दूसरे के विरोध में खड़ा कर देता है। कबीर कहते हैं-'कहे हिन्दू मोहिं राम प्यारा, तुरक कहे रहिमान, आपस में दोउ लरि-लरि मुवे, मरम न काहू जाना।।' इस प्रकार से पथभ्रष्ट समाज को एक राह दिखाना चाहते हैं। यह संत परंपरा के कवियों का प्रमुख उद्देश्य है, प्रमुख लक्ष्य है। संत परंपरा के प्रतिनिधि कवि कबीर इसीलिए समाज सुधारक भी हैं। और इस समाज सुधारक में हमें उनके स्वभाव में कठोरता भी दिखाई देती है। और दूसरी ओर वे प्रेमासक्त भक्त कवि हैं, जो बड़ी अधीरता से कहते हैं, दुलहिन गावो मंगलाचार, मेरे घर आए राजा राम भरतार।
संत कवियों में अभिव्यंजन कौशल
अब हम बात करें इस संत काव्य परंपरा के भक्त कवियों साहित्य में अभिव्यंजना कौशल पर। हालांकि ये सारे संत कवि निम्न वर्ग परंपरा से संबंधित हैं। ये सभी न किसी मदरसे में, न किसी विद्यालय या पाठशाला में इन्होंने अध्ययन किया है। कबीर कहते हैं मसि कागद हाथ से छुओ नहीं, कलम गहि नहि हाथ, मतलब ये सभी के सभी अक्षर ब्रह्म के ज्ञाता हैं। लेकिन अक्षर ज्ञान के प्रति ये सब वीरक्त हैं। तब क्या हम यह मानें की इनका साहित्य अभिव्यक्ति की दृष्टि से कमजोर है। क्या इन्होंने अभिव्यंजना कौशल चूंकि पढ़ा नहीं है, अभिव्यंजना कौशल के बारे में क्या इनकी जानकारी शून्य है ? पर इनके साहित्य को जब हम विस्तार से पढ़ते हैं, तो हम पाते हैं कि भले ही इनका साहित्य ज्ञान या अक्षर ज्ञान बहुत शक्तिशाली नहीं है, परंतु इनकी भाषा और इनकी अभिव्यंजना में वह क्षमता आ गई है जो इनकी तीक्ष्ण दृष्टि को अभिव्यक्त करने में सहायक रही है। इन्होंने कठिन से कठिन विषयों को सधुक्कड़ी भाषा और अलंकारों के प्रयोग द्वारा बहुत सहज, सरल और बोधगम्य बना दिया है। जैसे अहंकार से मुक्त मन की व्याख्या कितने सहज ढंग से कबीर करते हैं, प्रेेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय। जब मैं था तब तू नहीं, जब तू है मैं नही।। एक और बात देखिए दुःख जीवन का आर्य सत्य है। बुद्ध ने भी इसे बताया है। इस आर्य सत्य को कितने अच्छे से संत कबीर समझाते हैं, जनम धरे को दंड है, हर काहू को होय। ज्ञानी भोगे ज्ञान से, मूरख भोगे रोय।। तो इस प्रकार हम देखते हैं कि हांलाकि ये भाषा, अलंकार के बहुत जानकार नहीं हैं। बहुत बड़े ज्ञाता नहीं हैं। लेकिन इनके साहित्य में, वह चीज अनायास आ गई है। हालांकि शुक्लजी ने यह आरोप लगाते हुए कहा था कि संत कवियों की कबीर की भाषा खिचड़ी भाषा है। भाषा की ताकत नहीं है। लेकिन वही खिचड़ी भाषा, वही सधुक्कड़ी भाषा संत कवियों की ताकत है। इनकी सबसे बड़ी शक्ति है। ये अपनी सधुक्कड़ी भाषा के माध्यम से कठिन से कठिन विषय को इन्होंने सरल और बोधगम्य बना दिया है। क्योंकि ये कवि कविता के लिए कविता नहीं कर रहे थे। कविता तो इनके भाव और विचार को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर थी। अन्योक्ति अलंकार का प्रयोग करके कबीर ने शंकराचार्य के अद्वैतवाद को कितनी आसानी से समझा दिया-'जल में कुंभ है, कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी, फूटा कुंभ जल जलहि समाना यहि ततु कह्यो गयानी।।'
अब हम देखेंगे कि इस संत काव्य परंपरा में प्रमुख कवि कबीर के अलावा और कौन कौन हैं ? इस परंपरा में सुंदरदास, धरमदास, नानक देव, दादू दयाल और मलूकदास आदि कई संत कवि हैं। जिनका विपुल साहित्य हमें उपलब्ध होता है। और इन सभी का उद्देश्य है कि जाति-पांति, उंच-नीच, इन सारे भेदभावों को भुलाकर एकता, समानता, आचरण की शुद्धता पर जोर देते हुए एक आदर्श समाज का निर्माण करना और उत्तम आदर्श मानव संस्कृति की स्थापना करना यही इनका उद्देश्य है। और संत काव्य, हालांकि ज्ञान और बुद्धि पर आश्रित है पर भावना और अनुभूति ने इसे जनकाव्य बना दिया। और इसकी प्रेरणा स्रोत जो है, वह है सबका हित साधन। इसीलिए यह साहित्य सार्वदेशिक, सार्वकालिक बन गया और आज भी हमें इसमें वही ताजगी लगती है जो बरसों पहले थी।
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