“सिनेमा :
इश्तहारनामा ज़िन्दगी के’’
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के सहायक प्राध्यापक तथा सिने-आलोचक
राजीव रंजन प्रसाद से
वर्तमान सिनेमा के बारे में
सांस्कृतिक-पत्रकार अभिमा की सीधी बातचीत
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राजीव गाँधी
विश्वविद्यालय के प्रयोजनमूलक हिंदी के विद्यार्थियों के लिए
प्रस्तुत:
साक्षात्कार माॅडल-1
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भारतीय सिनेमा
आज किस
पड़ाव पर
है? वह
बीते ज़माने
से कितना
आगे है?
सिनेमा बीते ज़माने से आगे है या पीछे; यह सवाल बाद का है। पहला सवाल तो यही है कि आज सिनेमा आम ज़िदगी में अपनी दखल कैसी रखता है या कि किस भूमिका और सरोकार से संयुक्त-सम्पृक्त है। यह सवाल समीचीन है क्योंकि सिनेमा आम-आदमी के जीवन से अभिन्नतः जुड़ा है। सिनेमा समाज के प्रगतिशील, उन्नत, समृद्ध, जागरूक, चेतस, विवेकवान, शक्तिशाली होने का ज़िन्दा सबूत है। सिनेमा से देश की सूरतेहाल का पता चल सकता है। समाज की सोच, मानसिकता और दृष्टि का अंदाजा हो सकता है। सिनेमा से किसी राष्ट्र के लोगों के सोचने के ‘पैटर्न’, बोलने के ढंग तथा निर्णय लेने के तरीके का
पता तुरंत चल जाता है क्योंकि सिनेमा में एकालाप मोनोलाॅग ज्यादा देर नहीं चल पाता। दूसरे लोगों को शामिल होना पड़ता है या करना होता है। उसमें घर, बाहर, परिवार, समाज, काॅलेज, विश्वविद्यालय, बाज़ार, राजनीति सबको शामिल करने पड़ते हैं। सिनेमा मास-प्रोडक्कशन है और जनता के लिए कोई बात जब कही जाती है, तो जनता का उसमें किसी न किसी रूप में अथवा कहीं न कहीं उपस्थित होना अनिवार्य हो जाता है। इसलिए सिनेमा वन-वे लेक्चर नहीं है यह जीवन के समानांतर जीवन है। बस मुख्य फर्क यह है कि वह ‘टाइम स्लाॅट’से
बँधा होता है। उसके शुरू होने के बाद समाप्त होने की बाध्यता है। सिनेमा की यह सबसे बड़ी खूबी है और उसकी सीमा भी है।
इसकी भूमिका को सामाजिक-सांस्कृतिक दष्टि से देखें, तो क्या ‘इक्वेशन’ बनते हैं?
सामाजिक यथार्थ, स्थिति, मनोदशा, मनोवृत्ति, भाषा, उच्चार, संवाद, बोल, कार्यकलाप, शासन-व्यवस्था, राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, परम्परा, कला, साहित्य आदि बहुविध मसलों से दरस-परस रखने तथा उन्हें प्रभावित करने में सिनेमाई माध्यम की भूमिका बेजोड़ है। सिनेमा वह विश्वसनीय कलारूप है जिसका सौन्दर्यशास्त्र ‘जैनुइन’ मानव-समाज निर्धारित करता है; सिर्फ और सिर्फ विज्ञान-तकनीक तथा प्रौद्योगिकी की अतिरेकी दुनिया हरग़िज नहीं। यद्यपि सिनेमा अपनी प्रभावशीलता के अकूत ताकत द्वारा तकनीकी-प्रौद्योगिकी के हर ‘जैनेरेशन, ‘टाइप’ एवं ‘फ्लेवर’ को खुद में सफलतापूर्वक समेट लेता है; तथापि वह सदैव ‘स्टीरियोटाइप’ बना रहे, यह संभव नहीं है। सिनेमा का यही शीलगुण इंगमार बर्गमैन को काफी अपील करता है। उन्होंने खुले तौर पर स्वीकार किया है,-‘‘मैंने सिनेमा को माध्यम के रूप में इसलिए चुना क्योंकि सपनों के लिए जगह बनाने, अनुभवों को, फंतासियों को उपयोग कर लेने की इससे बेहतर कोई जगह हो भी नहीं सकती थी।‘’
इसीलिए सिनेमा को जीवन का पुनःसृजन कहा गया है, क्यों?
सिनेमा अपनी संसृष्टि में अन्तर्जात संवेदना को उभार सकता है। भीतर की बेचैनियों को आवाज़ दे सकता है, तो आन्तरिक हूक-टीस-कसक अथवा खुशी-उल्लास-प्रसन्नता को बिना किसी बनावटीपन/घालमेल के हमारे सामने हू-ब-हू प्रस्तुत कर सकता है। विषय-सन्दर्भ, मुद्दे-समस्याएँ चाहे जो हों; सिनेमा उनके साथ संगति करना तथा अच्छी तरह साथ निभाना बखूबी जानता है।
यह जीवन के समानांतर जीवन की रचना करने का मामला है जिसमें यांत्रिक-गतिकी से पहले सामाजिकी और मानविकी का मसला आता है। इन्हीं अर्थों में सिनेमा जीवन का आभरण है; उसका नवनिर्माण है। अर्थात् वह मूल्यों के रूप में जीवन का पुनःसृजन है।
भारत में फिल्म बनाने को लेकर कैसी दिलचस्पी रही है; कुछ बताएँ।
फिल्म
निर्माण की दिशा में गंभीर और विश्वसनीय बहुतेरे काम हुए हैं। अकादमिक शोध भी बहुत हुए हैं। क्षेत्रिय फिल्मों ने छोटे बजट का बड़ा और महत्त्वपूर्ण काम किया है। सिने-माध्यम से जुड़ी व्यक्तिगत संस्थाओं ने भी बहुत सारे अनुशीलन, परिशीलन, खोज, गवेषणा, शोध आदि किए हैं। यह और बात है, उनकी उपयोगिता, गुणवत्ता, सार्थकता, महत्त्व, भूमिका आदि को लेकर बहस-मुबाहिसे जारी हैं। विचार-विमर्श तथा संगोष्ठी-कार्यशालाओं की भारी धूम है। भारत में विभिन्न भाषाओं में फिल्में हर साल बनती हैं। हिंदी के बाॅलीवुड में अकेले सैकड़ों फिल्में हर साल तैयार होती हैं। बाज़ार के फार्मूले से लेकर जनता की नब्ज़ पहचानने की दमखम रखने वाली फ़िल्में साधारण चित्रपटों से लेकर बड़े सिनेमाघरों तक में हर हफ़्ते टंग रही है। मल्टीप्लेक्स के ज़माने ने सिनेमा की छवि को अधिक ‘ग्लैमर्स’ बना दिया है। साप्ताहांत के मौके पर सिनेमाघरों के इर्द-गिर्द जुटी युवाओं की फौज सिनेमा का वास्तविक समाजशास्त्र बयां करते हैं। उच्चशिक्षित कामकाजी वर्ग से लेकर संभ्रान्त मध्यवर्ग तक में सिनेमा को लेकर जबर्दस्त ‘पैशन’ है, दिलचस्प ‘क्रेज’ है। हमारे उत्तर-पूर्व में हिंदी फिल्मों का प्रभाव जबर्दस्त है। अरुणाचल प्रदेश में हिंदी को समझने में आसानी होती है, बोलने में सुगमता है तो इस माहौल को बनाने या कहें सिरजने में बाॅलीवुड का योदगदान सबसे अहम है।
अरुणाचल में
सिनेमा की
दख़ल की
बात करें
तो आश्चर्यजनक
तथ्य मिलेंगे।
यहाँ हिंदी
फिल्में बनती
हैं जिसे
अरुणाचली हिंदी
का सिनेमा
कहा जाता
है।
अरुणाचल में मुख्य रूप से अरुणाचली बोलियों में फिल्म बनी है। अरुणाचल की पहली हिन्दी फिल्म ‘मेरा धर्म मेरी माँ’ है। अरुणाचल में कई फिल्में बनी। अपियांग तायेंग के अनुसार-’ङोक गीदांग’ यह आदि भाषा मे बनी। ‘आयींग आपोङ ‘ भी आदी भाषा में बनी। इस फिल्म में शराब से जुड़ी समस्याओं को दिखाया है। ‘मउडा मउरा’ यह फिल्म न्यीशी भाषा में बनी है। ‘क्रासिंग ब्रीज’ यह फिल्म साल 2013 में बनाया गया। यह सेरदुकपेन भाषा में बनी है और इसका निर्देशक सांगे दोरजी ठोगंदोक है । इस फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म पुस्कार भी मिला। ‘सोनाम’ यह साल 2006 में बनी। यह फिल्म एक उपन्यास पर आधारित है। यह मोनपा भाषा में है। अरुणाचल में फिल्में ज्यादातर मातृभाषा
में ही बने हैं। राजीव गाँधी विश्वविद्यालय की फंक्शनल हिंदी की छात्रा रह चुकी अपियांग तायेंग बताती हैं कि-‘’अरुणाचल में हिन्दी सिनेमा का विकास 1 जनवरी 1976 ई. से शुरू होती है जिस वर्ष अरुणाचल की हिन्दी में पहली फिल्म बनी ‘मेरा धर्म मेरी माँ’। इसके बाद ‘विश्वासघात’ नामक एक फिल्म आयी । सन् 2007 में एक और फिल्म हिन्दी भाषा में बनी ‘मैं इंडियन, हम इंडियन’ जिसका निर्देशन श्री दी. के. थोङगुन ने की और कहानी भी उन्होने ही लिखा। यह फिल्म एक प्रेम कहानी है। इसके बाद ‘डॉ. आबो’ नामक और एक हिन्दी में बनी फिल्म आयी जिसकी मुझे ज्यादा जानकारी नहीं मिली है। 2015 को ‘ईटानगर जीरो किलोमीटर बना जिसका निर्देशन ताई तागुंग ने की है। यह फिल्म एक शहर में रहने वाले गरीब युवक की कहानी है।‘’
सिनेमा कला और विज्ञान दोनों माने जाते हैं, क्या राय है इस बारे में आपकी?
सार्वभौम सत्य है कि सिनेमा वैज्ञानिक कलारूप है। रूप और अन्तर्वस्तु का दृश्यविधान इस विधा में पूर्णतया समोया हुआ है।
वस्तुतः यह सिनेमाई कला एवं विज्ञान पक्ष के अंतःबाह्य सौन्दर्यशास्त्र को व्याख्यायित तथा अन्तर्जात रहस्यों का उद्घाटन करने का सर्वप्रमुख माध्यम है। इन अर्थ-सन्दर्भों में भारतीय सिनेमा आदर्श कल्पनाशीलता का अनुसरण करते हुए भी समकालीन यथार्थ तथा ज़मीनी सचाई से गहरे जुड़ा हुआ है। सामयिक पारिस्थितिकी-तंत्र को बारीकी संग पकड़ने और उनका स्थूल-सूक्ष्म प्रकटीकरण करने में सिनेमा ने बेमिसाल भूमिका अदा की है। दरअसल, जनसमाज से विमुख कलाकृति अपना दीर्घकालीन वजूद नहीं रखती हैं। सामयिक सचाई को आरोपित अथवा प्रायोजित घटनाक्रम द्वारा अतिरंजित बनाया जा सकता है, पर उसमें समाज के सरोकार, जिंदगी की गहन अनुभूति, मानवीयता के चेतस पहलू शामिल नहीं किए जा सकते हैं। भारतीय सिनेमा का चितेरा फिल्मकार
गुरुदत्त कम वक़्त तक जिंदा रह सके, लेकिन उनके काम को बिसारना भारतीय जनता के लिए संभव नहीं है। उनका कद आदमकद बुत नहीं, अपितु जन-संवेदना के असल सूत्रधार के रूप में मान्य है। उन्होंने हिंदी सिनेमा को ‘कागज के फूल’, ‘प्यासा’, ‘चैदहवीं का चाँद’, ‘सीआईडी’, ‘साहिब बीवी गुलाम’, ‘आरपार’, ‘जिद्दी’जैसी अनमोल फिल्में दी है।
हिंदी सिनेमा के बारे में थोड़ा और विस्तार से बताएँ, तो अच्छा होगा।
हिंदी सिनेमा के रजत-पटल की बात करें, तो यह बेहतरीन अतीत का साक्षी रहा है। पहली बार 1913 ई. में इसका परिचय हम भारतीयों को मिला। दादा साहब फाल्के के अथक प्रयास से ‘राजा हरिश्चन्द्र’ का दृश्य-मंचन हुआ। सिनेमा ने पहली बार नाटक अथवा रंगमंचीय अभिनय से अलग विधा के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी। शुरुआत में लोगों की दिलचस्पी कुछ खास नहीं रही। मूक सिनेमा होने के कारण यह माध्यम लोगों से चाहकर भी अपनापा नहीं गाँठ सका। हाँ, कुछ लोगों की दिलचस्पी को जरूर बनाए रखा। इन्हीं उत्साही लोगों के दमखम पर भारतीय सिनेमा का मूक-संस्करण वर्षों चलता रहा।
तत्कालीन सिनेमा में काम करने वाले लोग कौन थे?
मशहूर थियेटर से जुड़े कलाकारों ने इस विधा को हाथोंहाथ लिया। लोकप्रियता की चासनी एक दिन में तैयार नहीं होती, यह सच है। शनैः शनैः समय की धारा में इनका विकास तथा परिपक्व तरीके से निर्माण होता है। भारतीय सिनेमा अपने को इसी नज़रिए से रचने-बुनने में जुटी रही। इस समयांतराल में कई कलाकार इससे जुड़े। सिनेमा से जुड़े विभिन्न अंतःकार्यों को सबने मिलकर सफलतापूर्वक संपन्न किया। अपनी विशेष कुशलता, दक्षता और प्रवीणता के माध्यम से वे भारतीय सिनेमा को एक नए मुकाम की ओर ले गए। ‘आलमआरा’ ने फिल्म-धारा में ध्वनि को सृजित किया। अब दृश्य के साथ आवाज़ भी विराजमान हो गई। इस तरह 1931 ई. के बाद सिनेमा नई चाल में ढली। बदलाव के अनगिनत चिह्न हमें खोजने से मिल जाएंगे; बशर्ते हिंदी सिनेमा पर बात करने की असीम धैर्य हो; और तबीयत तो खैर होनी ही चाहिए।
माफ़ करेंगे सर, हम अतीत के चलचित्र को इस बातचीत में अधिक शामिल न करें, तो भी मेरे मन में एक सवाल थी
कि
स्वाधीनता के उपरांत आजाद देशवासियों ने सिनेमा को किस रूप में देखा या कि इस बारे में लोगों की सोच क्या थी?
स्वतंत्रता के बाद भारत में सिनेमा एक महत्त्वपूर्ण तथा मजबूत विधा बनकर उभरा। सिने-कार्य से जुड़े लोग प्रतिभाशाली थे और परिश्रमी भी। उन्होंने सिनेमा में अपने समय-समाज को रोप दिया। यह माध्यम सच कहने वाला दर्पण बना। समाचार-पत्र अथवा पत्रिका की तरह यह गूंगे-बहरे नहीं थे। यह बात-बात पर टेसुआ बहाने वाला ‘सोप आॅपेरा’भी
नहीं थे।
फिर ऐसा क्या था विशेष जिसे भारतीय सन्दर्भ में नोटिस किया जाना जरूरी था?
तत्कालीन
सिनेमा में भारतीयपन की रौनक थी। स्वतन्त्रता की चपलता थी, तो सांस्कृतिक बहुलता का स्वाभिमानी चेहरा था सबके पास। रिश्तों की मर्यादा और नैतिकता की चासनी में पगा यह वह रामवाण था जिसमें भारतीयता की झलक साफ देखे जा सकते हैं। इसी दौर में जीवन के समान जीवन को परदे पर समानांतर ढंग से उतारा गया। सिनेमा से जुड़े लोगों ने इसके लिए अपनी पूरी उम्र खपा दी। अभावग्रस्त जिंदगी के बीच गुजर-बसर करते हुए उन्होंने अपना पेट जिलाए रखा। आज की तारीख़ में सिनेमा का वह दौर अविश्वसनीय मालूम देता है जबकि यही सोलह आना सच है।
...आपके जे़हन में कुछ फिल्मों का नाम हों, तो बताते चलें।
फिल्में बहुत बनी। असर भी कमोबेश सबका रहा। कम या अधिक। हिंदी सिनेमा का दस्तावेजीकरण ज़बानी करना ग़लत होगा तब भी कुछ नाम जे़हन में जरूर बसे हैं। कालक्रम का ध्यान तो नहीं रख सकता, लेकिन नाम अवश्य ले सकते हैं। जैसे-‘प्यासा’, ‘जागते रहो’, ‘मदर इंडिया’, ‘जागृति’, ‘दो आँखे बारह हाथ’, ‘श्री 420’, ‘साहब बीवी गुलाम’, ‘फिर सुबह होगी’, ‘सुजाता’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘परिणिता’, ‘अंकुर’, ‘आक्रोश’, ‘भूमिका’, ‘मंथन’, ‘दुविधा’, ‘अर्द्धसत्य’, ‘सलीम लंगडे पर मत रो’, ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’, ‘स्पर्श’, ‘कथा’, ‘चश्मे-ब-दूर’, ‘मृगया’, ‘दामुल’, ‘पार’, ‘मंडी’, ‘मीर्च-मसाला’, ‘दीक्षा’, ‘द्रोहकाल’, ‘हजार चैरासी की माँ’, ‘सतह से उठता आदमी’, ‘लगान’, ‘सत्या’, ‘बेंडिट क्वीन’, ‘आँधी’, ‘कुर्सी’, ‘सत्ता’, ‘तमस’, ‘डोर’, ‘फायर’, ‘वाटर’, ‘गुलाल’, ‘क्वीन’, ‘थ्री इडियट’, ‘अलीगढ़’, ‘नीरजा’, ‘पीकू’, ‘पिंक’ आदि।
बहुत से महत्त्वपूर्ण निर्देशक और उनकी फिल्में तो एकदम से रह गईं...,
यह होगा ही। सायास याद करने से कई जरूरी नाम छूट जाते हैं। इरादतन ऐसा नहीं होता। नाम लेना एक ‘सैम्पलिंग माॅड’है। पर उससे बहुत कुछ अंदाजा हो जाता है। भारतीय फिल्म की प्रकृति और उनमें पैबस्त विचारधारा से रू-ब-रू हो लेते हैं। अब आपने चूँकि डायरेक्टर की बात कही, तो उनकी नाम लूँ तो हो सकता है कि कुछ और फिल्में इसमें जुड़ जाएँ। प्रकाश झा गंभीर निर्देशक हैं। उनकी फ़िल्में हैं-‘दामुल’जो 1984 ई. में बनी; ‘मृत्युदण्ड’सन् 1997 में बनी। बिहार के चर्चित अँखफोड़वा काण्ड पर बनी फिल्म ‘गंगाजल’2003 ई. में प्रदर्शित हुई। इसी तरह ‘अपहरण’ 2005 ई., ‘राजनीति’ 2009 ई. में बनी। सरकारी आरक्षण के ऊपर केन्द्रित फिल्म ‘आरक्षण’और नक्सलबाड़ी की समस्या पर केन्द्रित फिल्म ‘चक्रव्यूह’ भी प्रकाश झा ने बनाई है। फ़रहान अख़्तर ने ‘दिल चाहता है’ आमिर खान के साथ बनाया तो उनकी फिल्म ‘लक्ष्य’ और ‘क्या कहना’ भी सफल रही है। सफल निर्देशक के रूप में राजकुमार हिरानी का नाम प्रमुख है जिन्होंने ‘मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस.’ फिल्म से खूब शोहरत बटोरी। उनकी अन्य फिल्में हैं-‘लगे रहो मुन्नाभाई’, ‘थ्री इडियट्स’, ‘मुन्नाभाई चले अमेरिका’। इसी तरह राजकुमार संतोषी का नाम लिया जा सकता है जिनकी फिल्में बेहद चर्चित रही हैं। जैसे-‘घायल’, ‘दामिनी’, ‘अंदाज अपना-अपना’, ‘चाइना गेट’, ‘पुकार’, ‘लज्जा’, ‘दि लिजेंड आॅफ भगत सिंह’, ‘खाकी’, ‘हल्ला बोल’, ‘अजब प्रेम की गज़ब कहानी’। विधु विनोद चोपड़ा की फिल्मों ने भी खूब कमाल के प्रदर्शन किए। उनकी फिल्में हैं-‘1942: ए लव स्टोरी’, ‘परिन्दा’, ‘ख़ामोंश’, ‘एकलव्य: द राॅयल गार्ड’...
राजीव सर, आमोल पालेकर और प्रियदर्शन का काम भी अच्छा रहा है बाॅलीवुड में।
फ़िल्म निर्देशन का काम निर्देशक शिद्दत और बड़ी गंभीरता से करते हैं। हृषिेकेश मुखर्जी, मनमोहन शर्मा, अब्बास मस्तान, प्रकाश मेहरा, रमेश सिप्पी, यश चोपड़ा मंजे निर्देशक के रूप में मशहूर रहे हैं। सईं परांजपे और सईद मिर्जा के काम को भला कौन भूल सकता है। आमोल ने खुद
बेहतरीन फिल्में बनाई हैं। जैसे-‘थोड़ा रुमानी हो जाए, ‘कल का आदमी’, ‘पहेली’ आदि। इसी प्रकार का काम प्रियदर्शन का रहा है। उसकी फिल्में हैं-‘दे दनादन’, ‘बिल्लू’, ‘काँचीवरम’, ‘भूल-भुलैया’, ‘मेरे बाप, पहले आप’, ‘ढोल’, ‘चुपके-चुपके’, ‘मालामाल विकली’, ‘गरम मसाला’, ‘हलचल’, ‘डोली सजा के रखना’ आदि।
हिंदी सिनेमा के सौ वर्ष का अतीत बेहद सुनहला है।
औसत-साधारण से लेकर उम्दा और बेहतरीन बहुत काम हुए हैं।
निर्देशकों के
नाम की
लिस्ट बहुत
लम्बी है।
बहुत नाम है जिन्हें ‘इग्नोर’ नहीं किया जा सकता। आज की पीढ़ी सरोकार से कम जुड़ी है। वह बुनियाद को नहीं टटोलती। उसके लिए अतीत यानी बीता हुआ कल बकवास है। उसे आज के ‘फ्लेवर’ में ताजगी, नवीनता, मनोरंजन, संदेश, कहानी, कथावस्तु, संगीत, नृत्य, रोमांस, प्रेम, थ्रिलर, सस्पेंस आदि सबकुछ चाहिए। मेरी दीवानगी रही फिल्म में, फिल्म बनाने वाले में, उसे लिखने वाले में। लेकिन अब इन इंटरेस्ट का कोई कद्र नहीं है।
ऐसा क्यों कह रहे हैं?
देखिए, अब विद्यार्थी पढ़ना नहीं चाहते हैं या पढ़ना अपने मन-मुताबिक, इच्छानुसार चाहते हैं। उनके पास जानने के लिए दूसरे विषय हैं, सामग्री है। अक्सर उनके ‘टेस्ट’ से अपना तालमेल नहीं बिठता है। वह ‘नाॅनवेज जोक्स’ सुनना पसंद करते है। वर्चुअल और आग्युमेटिंग गेम्स के आदी हैं। अब चूँकि क्लासरूम में ऐसे ही लड़के-लड़कियाँ अधिक हैं। इसलिए उन्हें पढ़ाने खातिर उनके अनुसार अपना कैरेक्टर एडजस्ट करना होगा। अब अध्यापक भी अभिनयकर्ता की भूमिका में है। वह उन्हें पढ़ाता है कि वे पढ़कर परीक्षा पास कर लें। वे कुछ सीख रहे हैं या नहीं इसकी तहकीकात की, तो अपनी नौकरी खतरे में पड़ जाएगी। अब सबकुछ कागजी निर्देश में कागज भर ही सही होना सन्तुलित माना जाता है। बाकी ग़लत-सही पर लोग ध्यान नहीं देते। दो-चार गंभीर क्लासेज होने पर वे अगले दिन से कक्षा में बैठते ही नहीं। आपकी सारी तैयारी और अथक मेहनत की बाट लग जाती है। आप उनके आने देने के लिए अपनी विषय पर मजबूत पकड़ को इरादतन कमजोर करते हैं। उनके साँचे में खुद को ढालते हैं।
क्या उत्तर-पूर्व के विद्यार्थियों को लेकर ऐसा सोचना है आपका?
सोचना कुछ नहीं है। पढ़ाने को कुछ नहीं मिलता तो खीज होती है,
हो सकती है किसी को। अकादमिक वातावरण बेहद निराश करने वाले हैं। क्लासरूम की स्थिति इतने खराब हैं कि आप वहाँ से बेहतर लेक्चर नहीं दे सकते। धुल-धकड़ और गंदगी से सने कमरे में आप किसी को क्या और कैसी बात बताएँगे। किसी के कान पर जूँ नहीं। वे सैलरी देते हैं पर अच्छे ढंग से पढ़ाने की सुविधा नहीं। कहने पर कोई सुनवाई नहीं होती। आप क्या इनोवेटिव आउटपुट देंगे। दूसरे विद्यार्थियों की शिथिलता आपके जोश और समर्पण का कमर तोड़ देती है। उत्तर-पूर्व नहीं पूरे देश में शिक्षा के गुणवत्ता में जबरना कमी लाने का इरादतन कोशिश हो रहा है। अकादमिक प्रशासक शोध-अनुसन्धान को लगातार हतोत्साहित कर रहे हैं। फिर क्लासरूम में विद्यार्थियों से गंभीर बातचीत कैसे हो सकती। उन्हें भारतीय निर्देशन, अभिनय, कथानक, गीत, संगीत, नाटक, नृत्य, कला, साहित्य आदि के बारे में तो पहले कुछ पता नहीं; फिर उनसे यह क्या उम्मीद की जाएगी कि वह विश्व के महान निर्देशकों को जानें। उनके काम के बारे में हमसे बात करें। हम जहाँ जिस धुरी पर हैं वहीं से फैनिली, गोदार, गोरिसिकोवा, स्टेनले क्यूबैक, बुडी इलेज, वे कोकिला आदि को सादर नमस्कार करते हैं।
यह तो बेहद निराशाजनक स्थिति है। हम अपनी बातचीत को क्या इसी नैराश्य के साथ समाप्त करें।
नहीं, बिल्कुल नहीं। हम इस माहौल को दुरुस्त करेंगे। चाहे वक्त जितना लगे। हम लगातार अपने को बेहतर कल के लिए तत्पर रखेंगे। हमारे प्रयास से यथास्थिति जरूर बदलेंगी, यह उम्मीद ही हमारा एकमात्र ध्येय तथा अकादमिक लक्ष्य है।
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