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प्रयोजनमूलक हिन्दी के
संदर्र्भ में ‘प्रयोजन’ शब्द के साथ ‘मूलक’ उपसर्ग लगने से प्रयोजनमूलक पद बना है। प्रयोजन से तात्पर्य है उद्देश्य अथवा
प्रयुक्ति। ‘मूलक’ से तात्पर्य है आधारित। अत: प्रयोजनमूलक भाषा से तात्पर्य हुआ किसी विशिष्ट
उद्देश्य के अनुसार प्रयुक्त भाषा। इस तरह प्रयोजनमूलक हिन्दी से तात्पर्य हिन्दी
का वह प्रयुक्तिपरक विशिष्ट रूप या शैली है जो विषयगत तथा संदर्भगत प्रयोजन के लिए
विशिष्ट भाषिक संरचना द्वारा प्रयुक्त की जाती है। विकास के प्रारम्भिक चरण में
भाषा सामाजिक सम्पर्क का कार्य करती है। भाषा के इस रूप को संपर्क भाषा कहते हैं।
संपर्क भाषा बहते नीर के समान है। प्रौढा की अवस्था में भाषा के वैचारिक संदर्भ
परिपुष्ट होते हैं औैर भावात्मक अभिव्यक्ति कलात्मक हो जाती है। भाषा के इन रूपों
को दो नामों से अभिहित किया जाता है। प्रयोजनमूलक और आनन्दमूलक। आनन्द विधायक भाषा
साहित्यिक भाषा है। साहित्येतर मानक भाषा को ही प्रयोजनमूलक भाषा कहते हैं, जो विशेष भाषा समुदाय के समस्त जीवन-संदर्भो को निश्चित शब्दों और वाक्य
संरचना के द्वारा अभिव्यक्त करने में सक्षम हो। भाषिक उपादेयता एवं विशिष्टिता का
प्रतिपादन प्रयोजनमूलक भाषा से होता है।
प्रयोजनमूलक हिन्दी का
स्वरूप : हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है।
इसके बोलने व समझने वालों की संख्या के अनुसार विश्व में यह तीसरे क्रम की भाषा
है। यानी कि हिन्दी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। अत: स्वाभाविक ही है कि विश्व की
चुनिंदा भाषाओं में से एक महत्वपूर्ण भाषा और भारत की अभिज्ञात राष्ट्रभाषा होने
के कारण, देश के प्रशासनिक कार्यो में
हिन्दी का व्यापक प्रयोग हो, राष्ट्रीयता की दृष्टि से
ये आसार उपकारक ही है।
प्रयोजनमूलक हिन्दी
हिन्दी के भाषिक अध्ययन का ही एक और नाम है, एक और रूप है एक समय था जबकि सरकारी-अर्द्धसरकारी या सामान्यत: कार्यालयीन
पत्राचार के लिए अंग्रेजी एक मात्र सक्षम भाषा समझी जाती थी। अंग्रेजी की उक्त
महानता आज, सत्य से टूटी चेतना की तरह
बेकार सिद्ध हो रही है चूंकि हिन्दी में अत्यन्त बढ़िया, स्तरीय तथा प्रभावक्षम पत्राचार संभव हुआ है। अत: जो लोग हिन्दी को अविकसित
भाषा कहते थे, कभी खिचड़ी तो कभी क्लिष्ट भाषा
कहते थे या अंग्रेजी की तुलना में हिन्दी को नीचा दिखाने की मूर्खता करते थे
उन्हें तक लगने लगा है कि हिन्दी वाकई संसार की एक महान भाषा है, हरेक दृष्टि से परिपूर्ण एक सम्पन्न भाषा है।
राजभाषा के अतिरिक्त अन्य नये-नये व्यवहार क्षेत्रों में हिन्दी का प्रचार तथा प्रसार होता है, जैसे रेलवे प्लेटफार्म, मंदिर, धार्मिक संस्थानों आदि में। जीवन के कई प्रतिष्ठित क्षेत्रों में भी अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी का प्रयोग किया जाता है। विज्ञान औैर तकनीकी शिक्षा, कानून और न्यायालय, उच्चस्तरीय वाणिज्य और व्यापार आदि सभी क्षेत्रों में हिन्दी का व्यापक प्रयोग होता है। व्यापारियों और व्यावसायियो के लिए भी हिन्दी का प्रयोग सुविधाजनक और आवश्यक बन गया है। भारतीय व्यापारी आज हिन्दी की उपेक्षा नहीं कर सकते, उनके कर्मचारी, ग्राहक सभी हिन्दी बोलते हैं। व्यवहार के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रयोजनों से हिन्दी का प्रयोग किया जाता है। बैंक मे हिन्दी के प्रयोग का प्रयोजन अलग है तो सरकारी कार्यालयो में हिन्दी के प्रयोग का प्रयोजन अलग है। हिन्दी के इस स्वरूप को ही प्रयोजनमूलक हिन्दी कहते हैं।
राजभाषा के अतिरिक्त अन्य नये-नये व्यवहार क्षेत्रों में हिन्दी का प्रचार तथा प्रसार होता है, जैसे रेलवे प्लेटफार्म, मंदिर, धार्मिक संस्थानों आदि में। जीवन के कई प्रतिष्ठित क्षेत्रों में भी अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी का प्रयोग किया जाता है। विज्ञान औैर तकनीकी शिक्षा, कानून और न्यायालय, उच्चस्तरीय वाणिज्य और व्यापार आदि सभी क्षेत्रों में हिन्दी का व्यापक प्रयोग होता है। व्यापारियों और व्यावसायियो के लिए भी हिन्दी का प्रयोग सुविधाजनक और आवश्यक बन गया है। भारतीय व्यापारी आज हिन्दी की उपेक्षा नहीं कर सकते, उनके कर्मचारी, ग्राहक सभी हिन्दी बोलते हैं। व्यवहार के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रयोजनों से हिन्दी का प्रयोग किया जाता है। बैंक मे हिन्दी के प्रयोग का प्रयोजन अलग है तो सरकारी कार्यालयो में हिन्दी के प्रयोग का प्रयोजन अलग है। हिन्दी के इस स्वरूप को ही प्रयोजनमूलक हिन्दी कहते हैं।
प्रयोजनमूलक रूप के कारण
हिन्दी भाषा जीवित रही। आज तक साहित्यिक हिन्दी का ही अध्ययन किया जाता था, लेकिन साहित्यिक भाषा किसी भी भाषा को स्थित्यात्मक बनाती है और प्रयोजनमूलक
भाषा उसको गत्यात्मक बनाती है। गतिमान जीवन में गत्यात्मक भाषा ही जीवित रहती है।
प्रचलित रहती है। आज साहित्य तो संस्कृत में भी है, लेकिन उसका गत्यात्मक रूप-प्रयोजनमूलक रूप समाप्त हो गया है, अत: वह मृतवत हो गयी है। हिन्दी का प्रयोजनमूलक रूप अधिक शक्तिशाली तथा
गत्यात्मक है। हिन्दी का प्रयोजनमूलक रूप न केवल उसके विकास में सहयोग देगा, बल्कि उसको जीवित रखने एवं लोकप्रिय बनाने में भी महत्वपूर्ण योगदान देगा।
इस प्रकार विभिन्न
प्रयोजनों के लिए गठित समाज खंडों द्वारा किसी भाषा के ये विभिन्न रूप या परिवर्तन
ही उस भाषा के प्रयोजनमूलक रूप हैं। अंग्रेजी शासन में यूरोपीय संपर्क से हमारा
सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक ढांचा काफी
बदला, धीरे-धीरे हमारे जीवन में नई
उद्भावनाएं (जैसे पत्रकारिता, इंजीनियरिंग, बैंकीय) पनपी और तदनुकूल हिन्दी के नए प्रयोजनमूलक भाषिक रूप भी उभरे।
स्वतंत्रता के बाद तो हिन्दी भाषा का प्रयोग क्षेत्र बहुत बढ़ा है और तदनुरूप उसके
प्रयोजनमूलक रूप भी बढे हैं औैर बढ़ते जा रहे हैं। साहित्यिक विधाओं, संगीत, कपड़ा-बाजार, सट्टाबाजारों, चिकित्सा, व्यवसाय, खेतों, खलिहानों, विभिन्न शिल्पों और कलाओं, कला व खेलों के अखाड़ों, कोर्टो कचहरियों आदि में
प्रयुक्त हिन्दी पूर्णत: एक नहीं है। रूप-रचना, वाक्य रचना, मुहावरों आदि की दृष्टि से
उनमें कभी थोड़ा कभी अधिक अंतर स्पष्ट है और ये सभी हिन्दी के प्रयोजनमूलक परिवर्त
या उपरूप है।
प्रयोजनमूलक हिन्दी की
विशेषताएं :
प्रयोजनमूलक भाषा की
प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं –
1. वैज्ञानिकता : प्रयोजनमूलक शब्द
पारिभाषिक होते हैं। किसी वस्तु के कार्य-कारण संबंध के आधार पर उनका नामकरण होता
है, जो शब्द से ही प्रतिध्वनित होता
है। ये शब्द वैज्ञानिक तत्वों की भांति सार्वभौमिक होते हैं। हिन्दी की पारिभाषिक
शब्दावली इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
2. अनुप्रयुक्तता : उपसर्गो, प्रत्ययों और सामासिक शब्दों की बहुलता के कारण हिन्दी की प्रयोजनमूलक
शब्दावली स्वत: अर्थ स्पष्ट करने में समर्थ है। इसलिए हिन्दी की शब्दावली का अनुप्रयोग
सहज है।
3. वाच्यार्थ प्रधानता : हिन्दी के पर्याय शब्दों
की संख्या अधिक है। अत: ज्ञान-विज्ञान के विविध क्षेत्रों में उसके अर्थ को स्पष्ट
करने वाले भिन्न पर्याय चुनकर नए शब्दों का निर्माण संभव है। इससे वाचिक शब्द ठीक
वही अर्थ प्रस्तुत कर देता है। अत: हिन्दी का वाच्यार्थ भ्रांति नहीं उत्पन्न
करता।
4. सरलता और स्पष्टता : हिन्दी की प्रयोजनमूलक
शब्दावली सरल औैर एकार्थक है, जो प्रयोजनमूलक भाषा का
मुख्य गुण है। प्रयोजनमूलक भाषा में अनेकार्थकता दोष है। हिन्दी शब्दावली इस दोष
से मुक्त है।
इस तरह प्रयोजनमूलक भाषा
के रूप में हिन्दी एक समर्र्थ भाषा है। स्वतंत्रता के पश्चात प्रयोजनमूलक भाषा के
रूप में स्वीकृत होने के बाद हिन्दी में न केवल तकनीकी शब्दावली का विकास हुआ है, वरन विभिन्न भाषाओं के शब्दों को अपनी प्रकृति के अनुरुप ढाल लिया है। आज
प्रयोजनमूलक क्षेत्र में नवीनतम उपलब्धि इंटरनेट तक की शब्दावली हिन्दी में उलब्ध
है, और निरंतर नए प्रयोग हो रह हैं।
प्रयोजनमूलक हिन्दी के
अवरोध :
ब्रिटिश शासकों ने अपने
उपनिवेशों में एक महत्वपूर्ण कार्य किया था, अंग्रेजी को प्रतिष्ठित करने का। उन्होंने जिस अंग्रेजी को आरोपित किया, उसका उद्देश्य अपने शासन के लिए योग्य कर्मचारियों को तैयार करना था। जनता से
संपर्क के लिए वे हिन्दी सीखते थे और शासन के लिए भारतीय भाषाओं को हेय बताकर
अंग्रेजी के एक व्यावहारिक रूप का प्रचार कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने जीवन-यापन से जुड़े क्षेत्रों में अंग्रेजी को
अनिवार्य कर दिया। 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली। राष्ट्रीयता की प्रबल भावना के कारण स्वदेश और
स्वभाषा का समर्थन सभी राष्ट्र नेताओ ने किया। संविधान निर्माताओं ने बिना किसी
संशय के हिन्दी को राजभाषा घोषित कर दिया। राजभाषा के साथ ही प्रयोजनमूलक भाषा का
विकास प्रारंभ होता है। शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त भाषा का संबंध समस्त
सामाजिक प्रयोजनों से जुड़ जाता है। अत: 26 जनवरी 1950 से ही प्रयोजनमूलक हिन्दी की
निर्माण प्रक्रिया प्रारंभ हुई और समस्त सरकारी और गैर सरकारी संगठनों, शिक्षालयों, संचार माध्यमों, उद्योगों और तकनीकी संस्थानों का उद्देश्य अपनी भाषा के माध्यम से कार्र्य
करना था।
अंग्रेजी शासकों के इन
कृत्यों ने ही कालान्तर में शब्दावली का रोना रोकर 15 वर्षो तक हिन्दी के विकास को अवरूद्ध किया और अंग्रेजी को बनाए रखा। सरकारी
व्याप से बने कोश जन सामान्य तक नहीं पहुंचे। उन्हें प्रतीक्षा थी राष्ट्रीयता के
जोश की समाप्ति की। उसमें वे सफल रहे औैर राष्ट्रीयता की लहर का स्थान वोट-बैंक की
राजनीति ने ले लिया। क्षेत्रीय भाषाओं के विरोध का नया स्वर गूंजा औैर उत्तर बनाम
दक्षिण, हिन्दी बनाम अहिन्दी के नाम पर
अंग्रेजी का और अंग्रेजी के बल पर देशी अंग्रेजी का शासन बना रहा।
इस प्रकार राजभाषा के रूप
में हिन्दी की प्रतिष्ठा का स्वप् अधूरा रहा। इसके बावजूद प्रयोजनमूलक हिन्दी का
विकास अवरूद्ध नहीं हुआ। सरकारी तंत्र की उपेक्षा के बावजूद विश्व को उपभोक्ता
बाजार मानने वाली विदेशी कंपनियों ने विज्ञान एवं सूचना के क्षेत्र में हिन्दी को
महत्व दिया। भारतीय चैनलों से अधिक विदेशी कंपनियां हिन्दी प्रदेश में हिन्दी को
अपनाकर आगे बढ़ रही हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि वोट बैंक
पर नहीं, पूंजी बैंक पर है और इस पर
नियंत्रण करने के लिए चित्रपट जगत, वाणिज्यिक प्रतिष्ठान और सूचनातंत्र हिन्दी की उपेक्षा नहीं कर सकते। इस तरह प्रयोजनमूलक हिन्दी के
मार्ग में अनेक अवरोध स्वतंत्रता प्राप्ति से आ रह हैं औैर उनका सामना करते हुये
भारत की यह भाषा अपना अस्तित्व अधिक प्रभावशाली बनाये जा रही है।
निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि साहित्य भाषा को प्रतिष्ठा दे सकता है, लेकिन विस्तार नहीं देता। भाषा को विस्तार देता है, उसका प्रयोजनमूलक स्वरुप। प्रयोजनमूलक भाषा के रूप में हिन्दी को वैश्विक
प्रसार मिला है। हिन्दी के प्रयोजनमूलक स्वरूप के विकास के कारण ही आज संपूर्ण
भारत में हिन्दी को समझने और बोलने वाले मिल जाते हैं। यह आवश्यक है कि यदि सही
अर्थो में राजभाषा का क्रियान्वयन होता तो आज हिन्दी का प्रसार विदेशों में भी हो
गया होता, लेकिन हिन्दी का विकास राजकीय
प्रयोजनेतर माध्यमों के द्वारा हा रहा है, जिनमें चलचित्र, दूरदर्शन और उद्योग व्यापार के
विदेशी प्रतिष्ठानों का योगदान अधिक है। इसलिए आज हिन्दी के प्रयोजनमूलक संदर्भो
से जो क्षेत्र जुड़े हैं वे हैं -1. राजभाषा और उससे सबंद्ध
क्षेत्र (कामकाजी क्षेत्र)। 2. पत्रकारिता। 3. श्रव्य माध्यम। 4. दूरदर्शन और चलचित्र। 5. अनुवाद और उसके माध्यम के विज्ञान, तकनीक और व्यापार। इन क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग का ज्ञान ही आज की
उपभोक्तावादी सभ्यता में हिन्दी और हिन्दी भाषी को प्रतिष्ठित कर सकता है।
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