Tuesday, 3 May 2016

प्रगति-पथ पर हिंदी और उसकी प्रयोजनीयता


-राजीव रंजन प्रसाद







भारत के सांविधानिक नक्शे में हिंदी भाषा राजभाषा के रूप में मान्य है। यह राष्ट्रभाषा है और सम्पर्क भाषा भी। ज्ञान-विज्ञान, अन्तरानुशासनिक एवं अन्तर्सांस्कृतिक प्रचार-प्रसार इत्यादि में सांविधानिक रूप से मान्यता प्राप्त यह एक वैध भाषा है। इस बारे में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 343 से अनुच्छेद 351 के अन्तर्गत काफी कुछ लिखित एवं वर्णित है। यही नहीं अनुच्छेद 120 में संसद में भाषा-प्रयोग के बारे में हिंदी की स्थिति स्पष्ट है, तो अनुच्छेद 210 में विधान-सभा एवं विधान-परिषद में हिंदी के प्रयोग को लेकर ठोस दिशा-निर्देश उल्लिखित है। वहीं सम्पर्क-भाषा कहने का अर्थ-आशय रोजमर्रा के प्रयोग-प्रचलन की भाषा, कुशलक्षेम, हालचाल की भाषा, आमआदमी के बोली-बर्ताव की भाषा। यह हमारी आय और आमदनी की भाषा भी है जिसे पारिभाषिक शब्दावली में इन दिनों प्रयोजनमूलक हिंदी कहा जा रहा है। दरअसल, प्रयुक्ति की दृष्टि से यह नवाधुनिक क्षेत्र है जिनका महत्त्व एवं प्रासंगिकता हाल के दिनों में तेजी से बढ़े हैं। जैसे मीडिया, विज्ञापन, सिनेमा, अनुवादक, राजभाषाधिकारी, पुस्तक प्रकाशन, अकादमिक क्षेत्र, व्यावसायिक अनुप्रयोग, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आदि। यह सचाई है कि देश के अंदर और बाहर हिंदी की स्थिति में सुखद परिवर्तन आया है। हिंदी बाज़ार की भाषा बन रही है। हिंदी के व्यावसायिक क्षेत्र का निरंतर विस्तार हो रहा है। यह स्थिति भारत में ही नहीं, बाहर भी है। आज दुनिया के सभी प्रमुख राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में हिंदी का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है।
सूचना-प्रौद्योगिकी के इस बदलते परिवेश में अनगिन चुनौतियों के बावजूद हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं ने धीरे-धीरे अपना स्थान बना लिया है और प्रगति के पथ पर अग्रसर है। हमें इस तथ्य को भी नहीं बिसारना होगा कि सूचना प्रौद्योगिकी के सन्दर्भ में हिंदी तथा भारतीय भाषाओं का भविष्य उज्ज्वल तो है, परन्तु बहुत कुछ प्रयोक्ता की माँग पर निर्भर करता है। यद्यपि एक सर्वेक्षण के अनुसार 44 प्रतिशत भारतीय हिंदी वेबसाइटों और सर्च इंजनों की माँग करते हैं। अर्थात् हिंदी भाषा के प्रयोग-व्यवहार से सम्बन्धित प्रयुक्ति-क्षेत्र में इज़ाफा एक ऐसी सचाई है जिसे झुठला सकना अब मुमकिन नहीं है। डाॅ. श्याम शंकर सिंह अरुणाचल प्रदेश स्थित राजीव गाँधी विश्वविद्यालय में हिंदी भाषा के अध्यापक हैं। वे हिंदी भाषा की बुनियादी खूबी बताते हुए कहते हैं-‘‘हिन्दी अपनी सरलता के कारण देश के बहुसंख्यक वर्ग में महत्त्वपूर्ण बनी हुई है; जनभाषा बनी हुई है; लोकभाषा बनी हुई है। संभवतः यही एकमात्र भाषा है जिसे बोलने के लिए व्याकरण की कक्षा में बैठने की अनिवार्यता नहीं है। हमारे भाई जो कुली हैं, रिक्सा खींचने का काम करते हैं; खोमचे वाले हैं; श्रमजीवी हैं-सभी व्याकरण की शिक्षा लिए बिना ही सहर्ष इस भाषा के साथ जुड़ चले। ऐसा इसलिए हुआ कि हिन्दी में सम्प्रेषण वाला पक्ष सफलतापूर्वक साध लिया। कमा चलाने की दृष्टि से हिन्दी बेजोड़ सिद्ध हुई है। उदारीकरण-भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद-बाज़ारवाद एवं सूचना क्रांति जनसंचार की प्रमुखता के इस युग में हिन्दी ने अपने महत्त्व को प्रमाणित किया है।‘’ इसी प्रकार विपणन-बाज़ार की मोटी आय का साधन हिंदी विज्ञापन किस कदर प्रमुख भूमिका में हैं, यह अलग से कहने की आवश्यकता नहीं है। बाॅलीवुड फिल्मों का भारत से बाहर जलवा कितनी जबर्दस्त है; इस सचाई से हम-सब अवगत हैं। इसी तरह हाॅलीहुड फिल्मों का हिंदी में रूपांतरण और उसकी लगातार माँग हिंदी माध्यम में दिख रहे अवसर का बेमिसाल नमूना है।  
हिंदी के वैश्विक परिदृश्य आज तेजी से बदल रहे हैं। भारत से बाहर रचे-बसे प्रवासी भारतीयों का हिंदी के प्रति राग-अनुराग-वैराग अलग धरातल पर है जिस ओर हमारा ध्यान जाना लाज़िमी है। प्रवासी भारतीयों ने हिंदी-अंग्रेजी का विवाद खड़ा किए बिना हिंदी को जो ऊँचाई, मान और तवज्ज़ों प्रदान की है। इसका अनुमान फेसबुक, ट्विटर, सोशल मीडिया के जानकारों को सर्वाधिक होना चाहिए। आज हिंदी भाषा यूनीकोड संस्करण के अन्तर्गत अमेरिकी आलाकमानों तक से बतिया ले रही है तो माॅरीशस के सचिवालय तक में अपनी मजबूत पैठ रखने में सफल है। भाषाविद् महावीर सरन जैन भी इस बात की पुष्टि करते हैं। उनके मुताबिक हिंदी का वैश्विक परिप्रेक्ष्य समुन्नत, नवाचारी और विचारान्वेषी है। केन्द्रीय हिंदी निदेशालय से प्रकाशित भाषापत्रिका में प्रो- जैन ने भाषा के व्यवहार एवं व्यक्तित्व के लोकमनोविज्ञान को गंभीरतापूर्वक देखने-समझने की चेष्टा की है। इसके लिए उनके द्वारा चुना गया प्रविधिगत उपकरण बेजोड़ हैं। वस्तुतः वे भाषा की निरन्तरता(रेगुलरिटी), ढाँचा(स्ट्रक्चर), कार्य(फंक्शन), परिवर्तन(चेंज), अर्थ का सम्बोध(कन्सेप्ट आॅफ मीनिंग) आदि पर विशेष बल देते हैं जिसका अनुसरण करते हुए क्षेत्रियता के बाहर और वैश्विकता के अन्दर हिंदी भाषा का आधुनिक संदर्भ निःसंदेह महत्त्वपूर्ण है और अप्रतिम सृजनात्मकता का परिचायक भी।
इस घड़ी हिंदी के बारे में महात्मा गाँधी की सोच हमें बेजोड़ मालूम देती है-‘’प्रांतीय भाषा या भाषाओं के बदले में नहीं बल्कि उनके अलावा एक प्रांत से दूसरे प्रांत का सम्बन्ध जोड़ने के लिए सर्वमान्य भाषा की आवश्यकता है और ऐसी भाषा तो एकमात्र हिंदी या हिंदुस्तानी ही हो सकती है।‘’ इस कथन के आलोक में लिपि का सन्दर्भ लेना भी उचित होगा कि भाषा मानव-व्यवहार की विलक्षणता और बुद्धिमता की सूचक है। भाषा के माध्यम से ही मानव अपने भावों, विचारों को दूसरे तक पहुँचाने में समर्थ होता है। भाषा की इसी निरन्तरता से प्राचीन साहित्य, विज्ञान, पारम्परिक धरोहर, लोकसंस्कृति आदि हमें इतने वर्षों बाद भी उपलब्ध है और यह संभव हुआ है लिपि के कारण। लिपि ही किसी भाषा की समृद्धि और उसके व्यवहार-क्षेत्र को दर्शाती है। भाषा के व्यवहार-क्षेत्र की व्यापकता के कारण ही स्वतन्त्रता के पश्चात 14 सितम्बर, 1949 को देवनागरी में लिखित हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया। इस तरह अट्ठाइस स्वतंत्र राज्यों एवं सात केन्द्रशासित प्रदेशों से मिलकर बना भारत(इंडिया) एक बहुभाषाभाषी राष्ट्र है। सर्वेगत आँकड़ों के अनुसार(भारतीय जनगणना सर्वेक्षण, 1961, भारत में बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या 1652 मानी गई हैं। इनमें से सिर्फ 22 भाषाएँ संविधान की अष्ट्म अनुसूची में शामिल हैं। इन सबमें हिंदी भाषा की प्रकृति समन्वयकारी और समुच्चयबोधक है।
दरअसल, आधुनिक भारतीय भाषाओं में हिंदी का प्रयोग क्षेत्र विशाल और बहुपरतीय है। हिंदी की लिपि देवनागरी है जिसके सतत् विकास सम्बन्धी बृहद् विवेचना अनुच्छेद 343 से अनुच्छेद 351 के अन्तर्गत भारतीय संविधान में प्रदत है। डाॅ विमलेश कांति वर्मा का मत द्रष्टव्य है,-‘’-हिंदी वस्तुतः एक भाषा ही नहीं वरन् एक भाषा समष्टि का नाम है। खड़ी बोली, ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी, हरियाणवी, अवधी, बघेली, छतीसगढ़ी, मैथिली, मगही, भोजपुरी, मारवाड़ी, मेवाती, जयपुरी, मालवी, गढ़वाली तथा कुमाउँनी हिंदी की प्रधान शैलियाँ हैं जो क्षेत्र-विशेष में वहाँ के रहवासियों की भावाभिव्यक्ति एवं अभिव्यंजना का माध्यम है। इस भाषा का अपना लोक-साहित्य समृद्ध है। इनमें परिनिष्ठित खड़ीबोली को भारतीय संघ की राजभाषा होने का गौरव प्राप्त है। आज हिंदी का अर्थ सामान्यतः खड़ीबोली लिया जाता है जो साहित्य शिक्षा तथा साधन के माध्यम के रूप में प्रयुक्त होती है। हिंदी इस प्रकार एक जनभाषा है, सम्पर्क भाषा है, राजभाषा है और देश की राष्ट्रभाषा है। हिंदी एक समृद्ध भाषिक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परम्परा की वाहिनी है। वह संस्कृत जैसी सम्पन्न भाषा की उत्तराधिकारिणी है, तो पालि-प्राकृत की सहमेली सखा-मित्र। डाॅ शिवनन्दन प्रसाद की दृष्टि में-“-हिन्दी से तात्पर्य उस भाषा या भाषा परिवार से है जो भारत की राष्ट्रभाषा है, जो प्राचीन ग्रंथों के मध्य प्रदेश कहे जाने वाले विशाल भूभाग की जिसके अंदर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली समाविष्ट हैं( प्रधान साहित्यिक भाषा रही है और जिसके अंतर्गत अनेकानेक बोलियाँ-बोलियाँ सम्मिलित हैं।“
संक्षेप में कहें, तो स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारतीय समाज को एकजुट और एकाग्र्र करने में हिंदी भाषा की भूमिका अनिर्वचनीय रही है। अर्थात् यह हिंदी ही है जिसने हमारे राष्ट्राध्यक्षों के सीने को फुलाया है; विदेशी सरजमीं पर भारतीय हमज़बान लोगों के बीच ’मेक इन इंडियाका गर्जन-तर्जन करने का सुअवसर प्रदान किया है। आज भी हिंदी ही वह सबसे माकुल भाषा है जिसमें चुनाव लड़ा जाता है; फिल्मी गाने गाए जाते है; कविता, कहानी और उपन्यास लिखे जाते हैं। हिंदी का दायरा भारतीय परिक्षेत्र तक सीमित-परिसीमित नहीं है। अंग्रेजी के दावतखाने में तथाकथित बौद्धिकों के लामबंद होने के बावजूद हमारी हिंदी बन-सँवर रही है, क्योंकि उससे जुड़ी देश की एक बड़ी आबादी अपनी भाषा निधड़क बोलती समझती है। उसे यूजीसी पता है और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी। उसे रेल पता है, तो सवारी गाड़ी भी। वह मिरर जानती है और आइना-दर्पण भी। वह दिस-दैट जानती है, तो आप-तुम-तू भी। यह क्षेत्रिय है और वैश्विक भी। इंटरनेटी है, तो कविताकोशी भी। अतएव, हिंदी दिवस पर ऊपरी आर्तनाद और चीत्कार करने वाले विकलांग बौद्धिकों से यह इल्तज़ा है कि यदि वे वर्तमान समस्याओं अथवा भविष्य की संभावनाओं को लेकर कुछ विशेष और मौलिक नहीं रच सकते, तो अपनी अयोग्यता भी किसी पर नहीं थोपे। नई पौध, नौजवान पीढ़ी, यशस्वी है; ऊर्जावान है, वह अपना असली मुकाम पा लेगी; सही ठीकाना खोज लेगी।

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