रिपोर्ताज
‘आए थे हँसते-खेलते मयेखाने में फि़राक,
जब पी चुके फि़राक, तो संजीदा हो गए....!’
शायरनवीश फि़राक ने यह बात किस रौ अथवा फिक्र में कही होगी, नहीं पता। लेकिन उस दिन उनकी यह पंक्ति हमसब पर खूब असर कर रही थी। दिनांक 19 फरवरी और दिन शुक्रवार। यह वार्षिक
वनभोज कार्यक्रम की तयशुदा तारीख़ थी। तिथि पूर्व-निर्धारित होने से मन उसकी ओर लगा हुआ था। हिन्दी विभाग के
विद्यार्थियों ने लगभग मनुहार के लहजे में हम सभी अध्यापकों से इल्तज़ा की थी-‘आप सर, जरूर आना; अच्छा लगेगा आपको।’मेरे लिए तो यह सुनना ही प्रीतिकर था। मैंने तुरंत हामी भर दी। विद्यार्थियों ने जानकारी दी कि इस बार का वनभोज कार्यक्रम राजीव गाँधी विश्वविद्यालय परिसर के पिकनिक स्थल से भिन्न जगह पर आयोजित है। उन्होंने उस जगह का नाम मिडपु बताया जो दिकरांग नदी के तीर पर अवस्थित है। शहर से दूर। अरुणाचल के ‘हर्ट जोन’जीरो जाने के रास्ते में यह नाहरलागुन से नगीच पड़ता है। अपने विश्वविद्यालय से इसकी दूरी यही कोई 10 किलोमीटर के समीप होगी।
लगभग ग्यारह बजे कार से चार जन(विभागाध्यक्ष
हरीश कुमार शर्मा, डाॅ. श्याम
शंकर सिंह, डाॅ. विश्वजीत
कुमार मिश्र और कार्यालय सहायक श्याम सुंदर जी) मिडपु के लिए रवाना हुए। डाॅ. अभिषेक की बाइक संग मैं भी मिडपु की ओर बढ़ चला। यह मेरा पहला अनुभव था। विद्यार्थियों के साथ अध्यापकीय पद-गरिमा के साथ पिकनिक रोमांचकारी होगी, यह मैं जानता था। अरुणाचल की बहुत सारी खूबियों में एक खूबी यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति की निजता एवं उसकी स्वतन्त्रता का पूरा ख्याल रखा जाता है। सतही मजाक, छिछोरी बात, अश्लील हरक़त आदि करने की सोच ही नहीं शामिल है यहाँ के जीवनराग, स्वभाव एवं व्यक्तित्व में। सुकून है, मैं सही जगह और सही लोगों के बीच हूँ। संगत और सोहबत से मानवीय संस्कार परिष्कृत होते हैं। यह अनुशीलन मेरे लिए केन्द्रीय भावभूमि का कार्य करते हैं। किसी भी विषय, मुद्दे या सन्दर्भ में हम सिर्फ अकेले सही नहीं हो सकते हैं। नचिकेता के अलावे अनगिनत पह्लाद और ध्रुव है जो दुनिया को राह दिखाते हैं, भटके मानुष का सही मार्गदर्शन करते हैं।
आधे घंटे के सफर के उपरांत आखिर हम गंतव्य तक आ ही पहुँचे। चार्ट पेपर पर लिखे शब्दों से हमारा सामना हुआ-‘वार्षिक वनभोज कार्यक्रम, हिंदी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय’। डाॅ. अभिषेक की बाइक ने ‘जीरो ओवर’ का इंडिकेटर दिया और हम जीरो जाने के रास्ते से अलग हो दिकरांग नदी के मुहाने की ओर बढ़ चले। कच्ची राह पर बाइक अठखेलियाँ करती हुई आगे बढ़ रही थी, तो पीछे से कार में सवार हमारे अन्य साथी हमें फाॅलो कर रहे थे। जल्द ही हम अपनी चिर-परिचित सुरीली तथा मधुर आवाज़ों, ध्वनियों, कलरवों की गूँज के बीच थे। विद्यार्थियों ने हम अध्यापकों का बड़ी ही गर्मजोशी से स्वागत किया। आगे बढ़कर हाथ मिलाया, दूर से नमस्ते, हृदय से अभिनन्दन। सबकुछ सजीव, प्राणवान और आह्लादकारी लग रहा था। दिकरांग नदी अपने अप्रतिम सौन्दर्य के साथ हाजि़र थी। उसके वेगमान नदी प्रवाह को दो किनारे थामे हुए थे। नदी का जीवन छू कर देखने पर प्रायः कंकरीला और पथरीला मालूम देता है। लेकिन असली निर्मलता का अक्षय-स्रोत यही है। यही है वह सदानीरा जिसे भूगोल की भाषा में कहीं गंगा कहा जाता है, तो कहीं नर्मदा; कहीं उसे ब्रह्मपुत्र कहा जाता है, तो कहीं कावेरी। मनुष्य जो नहीं गढ़ सकता है वह विधि-विधान सिर्फ प्रकृति के पास है। लोभ एवं अहंकार के मद में हमने प्रकृति का हरदम नुकसान किया है। लेकिन वह हमारे लिए कब, कहाँ, कैसे और किस तरह वरदान साबित हुई है इसका अहसास होना सबसे जरूरी है।
प्राकृतिक भू-दृश्यों के बीच हमारे विभाग के विद्यार्थियों का कारवां अनुपम दृश्यावली की तरह मालूम दे रहा था। उछलकूद, मस्ती, बातचीत, भागदौड़, संगीत, नृत्य के बीच हम देख पाते हैं अपने उन विद्यार्थियों को जो सबके लिए भोजन तैयार कर रहे हैं। हम नजदीक जाने को उद्धत होते हैं। पनीर की सब्जी। चिकेन। सलाद। दाल। चावल। अरे! यह क्या है जो बाँस की कोख में सींझ-पक रहा है। विद्यार्थियों ने उसे खास किस्म का एक अरुणाचली व्यंजन बताया जिसमें चिकेन पककर तैयार होता है। उसे मीठी आँच में हौले-हौले सेंका जाता है; किन्तु बाँस के कोटर में नाममात्र भी पानी के अंश नहीं मिले होते हैं। वह बाँस और कुछ पतों के रस से ही तैयार हो लेता है। मैं चकित भाव से देख रहा हूँ। डाॅ. अभिषेक मेरे आश्चर्य का मुआयना कर रहे हैं। यह अरुणाचल की तहजीब थी, जिसका मैं अपलक आस्वाद ले रहा था। दूसरी ओर मुझे ले जाने के लिए मेरा हाथ पकड़ लेते हैं डाॅ. अभिषेक। वह कोई पेय पदार्थ था जिसे बड़े ही मनोयोग से कुछ विद्यार्थी बनाने में जुटे थे। दरअसल, यह अपोंग था जिस बारे में मुझे विस्तारपूर्वक बताया जाता है। इसी बीच हम विद्यार्थियों की अन्य कई टोलियों से मुखातिब होते हैं जो अलग-अलग कामों में लगे हुए थे। उनके चेहरे पर प्रसन्नता की खूबसूरत धारी थी, जिसकी महीन-बारीक रंध्रों से मुख की कांति-आभा चमकती हुई दिखाई पड़ रही थी। सभी अपने विद्यार्थी थे। परास्नातक, एम.फिल., डिप्लोमा आदि के। वे चेहरे जो कक्षा में शांत और निर्विकार ढंग से हमें अध्यापन के दौरान घूरते हैं। इस घड़ी उनके मन का तुरंग कुलाचें मार रहा है। सभी उन्मुक्त हैं और पूर्ण स्वतन्त्र। उनकी सभी गतिविधियों, हरकतों, क्रियाकलापों में एक सधा हुआ लय है, तान-अनुतान, गूँज-अनुगूँज, ध्वनि-प्रतिध्वनि आदि। मुख से निःसृत शब्द कहे नहीं जा रहे बल्कि निःशब्द बज रहे हैं। हमसब उसे कान की ओट से सुन रहे हैं। तन की झुरमुटों से उसका मंद-मंद स्पर्श पा रहे हैं।
अचानक क्या सूझा? मैं डाॅ. अभिषेक के साथ नदी के उस तीर जाने को व्यग्र हो गया। दोनों ने संघाती बना ली। विद्यार्थियों ने न जाने की गुहार की। लेकिन हमदोनों ने दिकरांग नदी के पानी को थाह लिया था। हम बिना लड़खड़ाए सिर्फ एक-दूसरे को भरोसा देते हुए इस पार से उस पार हो गए। यह हमारे वनभोज कार्यक्रम का ‘क्लाइमेक्स’था। उस पार का मनोहारी दृश्य अवर्णनीय मालूम दिया। डाॅ. अभिषेक ने बताया कि हम रोनो हिल्स के कदम तले हैं जिस पर हमारा राजीव गाँधी विश्वविद्यालय अवस्थित है। मैंने चहलकदमी करते हुए दिकरांग नदी की मृदुलता और रोनो हिल्स के छाँव को महसूसा। हम दोनों कुछ देर यों ही प्राकृतिक छटा को देखते रहे, फिर एक जोड़ी पत्थर को आसन बना उस पर बैठ गए। हम विद्यार्थियों को देख रहे थे और विद्यार्थी संग हमारे सहकर्मी अध्यापकगण हम मतवालों को। जल्द ही खाने के लिए बुलाहट आने शुरू हो गए। हम जैसे आए थे उसी धार की बाँह पकड़ वापिस हो लिए।
स्थानीय पेय पदार्थ जिसकी बेसब्र प्रतीक्षा डाॅ. अभिषेक कर रहे थे, मुझे भी दी गई। मैंने मनाही नहीं की। दो-चार घूँट की तज़वीज ने ही जता दिया कि अब और अधिक बिल्कुल नहीं। हमारे एक विद्यार्थी जितेन ने कहा, ‘सर...पहली बार है, अतः रहने भी दे सकते हैं।’ प्रो. हरीशकुमार और डाॅॅ. विश्वजीत बिल्कुल निरामिष हैं। उनके लिए अलग व्यवस्था थी, बाकी ने ‘नाॅनवेज चटनी’ का जमकर लुत्फ लिया। विद्यार्थियों ने पुरजोर सत्कार द्वारा हमें अभिभूत कर दिया। उनके आवभगत में सहज प्रेम का आतुर्य था। वे जिस मनोभाव और मानवीय संवेंगों के साथ हमसे जुड़ रहे थे, इतनी जल्दी ऐसा अपनापा हो पाने के बारे में मैं सोच भी नहीं सकता था। हम साथ में बाॅलीवाल मैच खेले औैर हारे। विद्यार्थियों की जीत में हमारी प्रसन्नता बेशुमार थी। इसके बाद हम गाने के बोल पर थिरके। न चाहते हुए खूब नाचे। यह सब पहली बार मेरे अनुभव संग घटित हो रहा था। मैं इसे इसी बार भरपूर जी लेना चाहता था। अगले क्षण, अगले वर्ष क्या ठिकाना कौन कहाँ रहे? अरुणाचल मुझे कब तक अपना सहयात्री बनाए रख पाता है या मैं खुद कब तक इसके साथ बना रह पाता हूँ। लगभग सबकुछ अनिश्चित है।
मैंने इस दिन को यादगार बनाने की सोची और विभागाध्यक्ष प्रो. हरीशकुमार से अनुमति भी प्राप्त कर ली। पिकनिक के दौरान ही विद्यार्थियों को एक डायरी दिया गया। इसके पीछे मेरी यह सोच थी कि वे आज के अपने अनुभव, विचार, भाव आदि मुक्तहस्त से इस डायरी में दर्ज़ करें, साझा करें। विद्यार्थियों ने बड़े उत्साह से अपने मनोभाव व्यक्त किए। कुछ तो बड़े ही निराले ढंग से। परास्नातक अंतिम वर्ष के छात्र मुको देले ने लिखा-‘‘विद्यार्थी जीवन कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाने वाली है। यही सोच इस पिकनिक(वनभोज) में
मेरे
लिए
और मजेदार साबित हुआ। पिछले डेढ़ सालों से हम पिकनिक के नाम पर जंगल के बीच मुगली बने रहते या बन जाते थे। किन्तु इस बार हमें दूर नदी(दिकरांग) में पिकनिक मनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सच कहता हूँ इस बार की वनभोज उम्मीद से बेहतर सिद्ध हुआ। सबने मिलजुल कर खूब मस्ती की।‘’ रिबाॅम यानी जेरी ने लिखा-‘‘आज की पिकनिक बहुत ही यादगार रही। सबने मिलकर खुशियाँ मनाई और स्वादिष्ट भोजन किए। मुझे सबसे अच्छी बाॅलीवाल प्रतियोगिता लगी।‘’ इसी तरह परास्नातक द्वितीय सत्र की पिंकी ने अपने भावपूर्ण उद्वगार व्यक्त किए-‘‘अपने जीवन में मैं कभी अपने दोस्तों के साथ पिकनिक नहीं गई। हाँ, अपने परिवार के साथ बहुत बार पिकनिक जा चुकी हूँ। पर 19 फरवरी, 2016 मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत दिनों में से एक है। आज मैं अपने दोस्तों के साथ और अपने सीनियर एवं टीचिंग स्टाफ; खासकर अध्यापकजनों के साथ बहुत मस्ती की। यह मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत दिनों में से एक है। हैप्पी पिकनिक!’’ इस दिन का अरसे से बाट जोहती परास्नातक द्वितीय सत्र की छात्रा ताशी डेकी ने लिखा-‘‘आज का यह दिन मैं जिन्दगी में शायद कभी भूल नहीं सकती। क्योंकि इस दिन का मुझे काफी पहले से इन्तजार था।‘’ येशी ड्रामा ने भी बड़े ही मोहक अल्फ़ाज में अपने मन की बात साझा की। उन्होंने लिखा-‘‘मैं कुमारी येशी ड्रामा, मुझे आज का ये प्रोग्राम बहुत ही अच्छा लगा और सच में दोस्तों के साथ वक़्त बिताना मुझे बहुत प्रिय लगता है। यह मेरी जि़न्दगी का पहला पिकनिक है जो मैं अपने दोस्तों के साथ अपने अध्यापकों और बड़ों के साथ मजे ले रही हूँ। सच में, आज मैं बहुत खुश हूँ, अगर मैं आज नहीं आई होती, तो मुझे बहुत अफसोस होता।‘’ कुछ विद्यार्थियों ने लिखा कि मेरे पास कहने को बहुत कुछ है, लेकिन उसे मैं अभिव्यक्त कैसे करूँ, यह तय कर सकना मुश्किल है। अतः चलिए मौन रह लिया जाए। प्रयोजनमूलक हिन्दी के विद्यार्थी जितेन ने संक्षेप में सारगर्भित बात लिखी-‘‘पिकनिक में हमसब वनभोज के लिए मिडपु नाम के जगह पर आये। यहाँ मुझे बहुत अच्छा लगा। सबसे जरूरी बात सभी में एकता काफी है....’’। इस डायरी में कुछ गमज़दा चेहरे भी दिखे। परास्नातक द्वितीय सत्र के छात्र मनीष मौर्या ने लिखा-‘‘मुझे पिकनिक में आकर जितनी खुशी हुई है, उससे ज्यादा कहीं दुःख इस बात का है मेरे वरिष्ठ छात्र लोग कुछ ही दिन बाद हमसे जुदा हो जायेंगे।‘’ विद्यार्थी अपने चहेते शिक्षक की अनुपस्थिति से भी दुःखी थे। एम. फिल. की छात्रा ओर्ती ताबी ने लिखा-‘‘आज का यह दिन मेरे लिए हमेशा यादगार रहेगी। आज के दिन मुझे पिछले दो सालों की याद दिला दी। कमी केवल इस बात की है कि बीनी मैम हमारे पिकनिक में कभी भी नहीं आई। पिछले दो सालों की पिकनिक में भी नहीं आई।‘’ हमारे कुछ विद्यार्थी इस वनभोज के रंग में ऐसे रंगे की शायराना हो गए। एक विद्यार्थी ने लिखा-‘‘मैं रहूँ या न रहूँ तू मुझमें कहीं बाकी रहना। कभी नींद आये जो रात में तुम ख़्वाबों में आते ही रहना।।‘’
अब हमारे चलने की बारी थी। अर्थात् वापसी का समय। साँझ घिर आने को थी। विद्यार्थी हमसे पहले आए थे और अभी बाद को जाने वाले थे। उन्होंने हमसे कुछ देर और रूकने की दरख़्वास्त की। हमने उनकी बात की मान रखी। कुछ देर और जमे रहे। विद्यार्थियों के प्रिय अध्यापक डाॅ. श्याम शंकर जी संतरे और नाशपाती विद्यार्थियों के बीच बाँटते हुए बेहद प्रफुल्लित थे। उन्होंने विशेष तौर पर वनभोज के लिए इन चीजों की खरीदारी की थी। परास्नातक अंतिम वर्ष के डायनेमिक व्यक्तित्व वाले विद्यार्थी हिपू जोसेफ माइक पर गा रहे थे। कुछ देर बाद मैं भी उनकी संगत करने लगा। दोनो संग गाए, साथ नाचे। पूरा मंडली गोल बाहुपाश में हम अध्यापकों को संगीत के धुन में बाँधे रखा था। आकाश में बादलों के झुंड हमारी तरफ आने को तरस रहे थे और हम आकाशी बिम्बों को अपनी ज़मीनी अदा से लुभा रहे थे। ऐसे रोमांचपूर्ण क्षण में ही हमें निकलना था। सबलोग अपने वाहन पर सवार हुए।
मैं भी डाॅ. अभिषेक के होश में शिरक़्त कर रहा था। वह बाइक स्टार्ट करते कि कई विद्यार्थियों ने साथ तस्वीर खिंचा लेने की इल्तज़ा की। हमने इंकार नहीं किया। कई खटाखट सेल्फी ले चुकने के बाद हम चलने को उन्मुख ही हुए कि एक विद्यार्थी ने डायरी मेरे सामने कर दी और कहा-‘सर, आप भी कुछ लिख दीजिए।’लगा, जैसे मैं इसी मौके के ताक में था....लिखा-‘‘यह क्षण कई रूपों, अर्थों में अद्भुत है। इतनी हुलस और उल्लास के साथ सामुहिकता का लय, खुलापन और उन्मुक्तता मैं पहली बार देख रहा हूँ और अभिभूत हूँ।‘’
मैंने अपने लिखे के नीचे अपना हस्ताक्षर कर दिया था, लेकिन चाहते हुए भी तारीख़ न लिख सका। मुझे लगा इस सुअवसर को किसी खास तिथि, दिनांक अथवा तारीख़ के खाँचे में बाँधना उचित नहीं होगा। अरुणोदय की गोद में और दिकरांग के तीरे वनभोज का यह कार्यक्रम मेरे लिए नितांत स्मरणीय बन गया है और इसे मैं अपने अंदर ऐसे ही(एज
इट् इज) सहेजे रखने को इच्छुक हूँ....शुक्रिया
आरजीयू, धन्यवाद अरुणाचल!!!
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सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय
रोनो हिल्स, दोईमुख
अरुणाचल प्रदेश-791112
मो.: 8415976852
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