Monday, 31 October 2016

प्रिंट पत्रकारिता: लिखे-पढ़े-छपे का संसार


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http://asbmassindia.blogspot.in/2016/01/blog-post_26.html
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प्रिंट पत्रकारिता: समाचार पत्र और प्रकाशन समूह
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पत्रकारिता:
पत्रकारिता अंग्रेजी के जर्नलिज्मका अनुवाद है। जर्नलिज्मशब्द में फ्रेंच शब्दजर्नीया जर्नलयानी दैनिक शब्द समाहित है। जिसका तात्पर्य होता है, दिन-प्रतिदिन किए जाने वाले कार्य। पहले के समय में सरकारी कार्यों का दैनिक लेखा-जोखा, बैठकों की कार्यवाही और क्रियाकलापों को जर्नल में रखा जाता था,वहीं से पत्रकारिता यानी जर्नलिज्मशब्द का उद्भव हुआ। 16वीं और 18 वीं सदी में पिरियोडिकल के स्थान पर डियूरलन और जर्नलशब्दों का प्रयोग हुआ। बाद में इसे जर्नलिज्मकहा जाने लगा। पत्रकारिता का शब्द तो नया है लेकिन विभिन्न माध्यमों द्वारा पौराणिक काल से ही पत्रकारिता की जाती रही है। जैसा कि विदित है मनुष्य का स्वभाव ही जिज्ञासु प्रवृत्ति का होता है। और इसी जिज्ञासा के चलते आरम्भ में ही उसने विभिन्न खोजों को भी अंजाम दिया। पत्रकारिता के उदभव और विकास के लिए इसी प्रवृत्ति को प्रमुख कारण भी माना गया है।

अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के चलते मनुष्य अपने आस-पास घटने वाली घटनाओं को जानने का उत्सुक रहता है। वो न केवल अपने आस पास साथ ही हर विषय को जानने का प्रयास करता है। समाज में प्रतिदिन होने वाली ऐसी घटनाओं और गतिविधियों को जानने के लिए पत्रकारिता सबसे बहु उपयोगी साधन कहा जा सकता है। इसीलिए पत्रकारिता को जल्दी में लिखा गया इतिहास भी कहा गया है। समाज से हर पहलू और आत्मीयता के साथ जुड़ाव के कारण ही पत्रकारिता को कला का दर्जा भी मिला हुआ है। पत्रकारिता का क्षेत्र अत्यन्त व्यापकता लिए हुए है। इसे सीमित शब्दावली में बांधना कठिन है। पत्रकारिता के इन सिद्धान्तों को परिभाषित करना कठिन काम है, फिर भी कुछ विद्वानों ने इसे सरल रूप से परिभाषित करने का प्रयास किया है, जिससे पत्रकारिता को समझने में आसानी होगी।

महात्मा गॉधी के अनुसार-पत्रकारिता का अर्थ सेवा करना है।

डॉ. अर्जुन तिवारी ने एनसाइक्लोपिडिया आफ ब्रिटेनिका के आधार पर इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-‘‘पत्रकारिता के लिए अंग्रेंजी में जर्नलिज्मशब्द का प्रयोग होता है जो जर्नलसे निकला है,जिसका शाब्दिक अर्थ दैनिकहै। दिन-प्रतिदिन के क्रिया-कलापों,सरकारी बैठकों का विवरण जर्नलमें रहता था। 17वीं एवं 18वीं सदी में पिरियाडिकल के स्थान पर लैटिन शब्द डियूरनलऔरजर्नलशब्दों के प्रयोग हुए। 20वीं सदी में गम्भीर समालोचना और विद्वत्तापूर्ण प्रकाशन को भी इसी के अन्तर्गत माना गया। जर्नलसे बना जर्नलिज्मअपेक्षाकृत व्यापक शब्द है। समाचार पत्रों एवं विविधकालिक पत्रिकाओं के सम्पादन एवं लेखन और तत्सम्बन्धी कार्यों को पत्रकारिता के अन्तर्गत रखा गया। इस प्रकार समाचारों का संकलन-प्रसारण, विज्ञापन की कला एवं पत्र का व्यावसायिक संगठन पत्रकारिता है। समसामयिक गतिविधियों के संचार से सम्बद्ध सभी साधन चाहे वे रेडियो हो या टेलीविजन इसी के अन्तर्गत समाहित हैं।’’

डॉ.बद्रीनाथ कपूर के अनुसार-‘‘पत्रकारिता पत्र-पत्रिकाओं के लिए समाचार लेख आदि एकत्रित तथा सम्पादित करने, प्रकाशन आदेश आदि देने का कार्य है।’’

हिन्द शब्द सागर के अनुसार ‘‘ज्ञान और विचार शब्दों तथा चित्रों के रूप में दूसरे तक पहुंचाना ही पत्रकारिता है।’’

श्री रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर के अनुसार ‘‘ज्ञान और विचार शब्दों तथा चित्रों के रूप में दूसरे तक पहुँचाना ही पत्रकला है।’’

सी.जी.मूलर "सामयिक ज्ञान के व्यवसाय को पत्रकारिता मानते हैं। इस व्यवसाय में आवश्यक तथ्यों की प्राप्ति, सावधानी पूर्वक उनका मूल्यांकन तथा उचित प्रस्तुतीकरण होता है।

विखमस्टीड ने "पत्रकारिता को कला, वृत्ति और जन सेवा माना है।’’

मुद्रण तकनीक और समाचार पत्र :
पांचवीं शताब्दी ईसवी पूर्व में रोम में संवाद लेखक हुआ करते थे। मुद्रण कला के आविष्कार के बाद इसी तरह से लिखकर खबरों को पहुंचाया जाने लगा।मुद्रण के आविष्कार के बारे में तय तारीख के बारे में कहा जाना मुश्किल है,लेकिन ईसा की दूसरी शताब्दी में इसके आविष्कार को लेकर कुछ प्रमाण मिले हैं। इस दौरान चीन में सर्वप्रथम कागज का निर्माण हुआ। सातवीं शताब्दी मे कागज के निर्माण की प्रक्रिया को गुप्त रखा गया। कागज का आधुनिक रूप फ्रांस के निकोलस लुईस राबर्ट ने 1778 ई में बनाया। लकड़ी के ठप्पों से छपाई का काम भी सबसे पहले पाँचवी तथा छठी शताब्दी में चीन में शुरू हुआ। इन ठप्पों का प्रयोग कपड़ो की रंगाई में होता था। भारत में छपाई का काम भीलगभग इसी दौरान आरंभ हो गया था। 11वीं सदी में चीन में पत्थर के टाइप बनाए गए ताकि अधिक प्रतियाँ छापी जा सके। 13वी-14वीं सदी में चीन ने अलग-अलग संकेत चिन्हों को बनाने में सफलता प्राप्त कर ली। धातु टाइपों से पहली पुस्तक 1409 ईसवीं में छापी जाने के प्रमाण हैं। बाद में कोरिया से चीन होकर धातु टाइप यूरोप पहुँचा। 1500 ईसवीं तक पूरे यूरोप में सैकड़ों छापेखाने खुल गए थे, जिनसे समाचार पत्रों और पुस्तक का प्रकाशन होने लगा।नीदरलैंड से 1526 में न्यू जाइटुंग का प्रकाशन प्रारंभ हुआ।  इसके बाद लगभग एक शताब्दी तक कोई दूसरा समाचार पत्र प्रकाशित नहीं हुआ। दैनिक पत्रों के इतिहास में पहला अंग्रेजी दैनिक  11 मार्च 1709 को डेली करंटप्रकाशित हुआ।

प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार के बाद काफी समय तक किताबें और सरकारीदस्तावेज़ ही उनमें मुद्रित हुआ करते थे। सोलहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में पूरा यूरोप युद्धों को झेल रहा था, सामंतवाद लगातार अपनी शक्ति खो रहा था।अनेक विचारधाराएं उत्पन्न हो रहीं थी।  उद्यमी  व्यक्ति अनेक पीढ़ियों तकअपने समकालीन लोगों में ग्रन्थकार, घटना लेखक, सार लेखक, समाचार लेखक, समाचार प्रसारक,रोजनामचा नवीस, गजेटियर  के नाम से जाने जाते थे। इस दौरान आक्सफोर्ड गजटऔर फिर लंदन गजटनिकले जिनके बारे में पेपीज ने लिखा था, 'बहुत सुन्दर समाचारों से भरपूर और इसमें कोई टिप्पणी नहीं।'इसमें सन् 1665 और उसके बाद तक समाचार प्रकाशित होते थे। तीस वर्ष बादसमाचार पुस्तिकाशब्द का लोप हो गया और अब उसके पाठक उसे समाचार पत्र कहने लगे। समाचार पत्र शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख सन् 1670 में मिलता है। इस प्रकार के समाचार-लेखकों का महत्व आने वाले समय में लम्बी अवधि तक बना रहा।

भारत में पुर्तगाली मिशनरियों द्वारा स्थापित प्रेस में धार्मिक पुस्तकों का प्रकाशन ज्यादा होता था। 1558 में तमिलनाडु में और 1602 में मालाबार केतिनेवली में दूसरी प्रेस लगाई गई। बाद में 1679 में बिचुर में एक प्रेस कीस्थापना हुई जिसमें तमिल-पोर्तुगीज शब्दकोष छापा गया। फिर कोचीन और मुबंई में भी ऐसे प्रेस स्थापित किए गए। ब्रिटिश भारत में सबसे पहले अंग्रेजी प्रेस की स्थापना 1674 में बम्बई में हुई थी। इसके बाद 1772 में चेन्नई और1779 में कोलकता में सरकारी छापेखाने की स्थापना हुई। सन् 1772 तक मद्रास और अठारहवीं सदी के अंत तक भारत के लगभग ज्यादातर नगरों में प्रेस स्थापित हो गए थे।

हिकी'ज बंगाल गजट:  भारत में पहला समाचार पत्र
भारत मे सर्वप्रथम जेम्स आगस्ट्स हिक्की ने "हिकी'ज बंगाल गजट" के नाम से अखबार निकाल कर पत्रकारिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल की। इस अखबार मे भ्रष्टाचार और शासन की निष्पक्ष आलोचना होने के कारण सरकार ने इसके प्रिंटिंग प्रेस को जब्त कर लिया।जैम्स हिक्कीद्वारा 29 जनवरी1780 को बंगाल गजट या कलकत्ता जनरल एडवरटाइजरनामक साप्ताहिक पत्र प्रारम्भ किया गया। वस्तुतः इसी दिन से भारत में पत्रकारिता का विधिवत् प्रारम्भ हुआ। यह पत्र राजनीतिक और आर्थिक विषयों का साप्ताहिक है और इसका सम्बन्ध हर दल से है, मगर यह किसी दल के प्रभाव में नहीं आएगा। स्वयं के बारे में हिक्की की धारणा थी- ‘‘मुझे अखबार छापने का विशेष चाव नहीं है, न मुझमें इसकी योग्यता है। कठिन परिश्रम करना मेरे स्वभाव में नहीं है, तब भी मुझे अपने शरीर को कष्ट देना स्वीकार है ताकि मैं मन और आत्मा की स्वाधीनता प्राप्त कर सकूं।" दो पृष्ठों के तीन कालम में दोनों ओर से छपने वाले इस अखबार के पृष्ठ 12 इंच लंबे और 8 इंच चौड़े थे। इसमें हिक्की का विशेष स्तंभ ए पोयट्सकार्नर होता था। इसके बाद 1780 में इंडिया गजट का प्रकाशन हुआ। 50 वर्षों तक प्रकाशित होने वाले इस अखबार में ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यावसायिक गतिविधियों के समाचार दिए जाते थे। कलकत्ता में पत्रकारिता के विकास के जो प्रमुख कारण थे उसमें से एक था वहां बंदरगाह का होना। इसके अलावा कलकत्ता अंग्रेजो का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र भी था। एक और कारण यह था कि पश्चिम बंगाल से ही आजादी के ज्यादातर आंदोलन संचालित हो रहे थे। 18वीं शताब्दी के अंत तक बंगाल से कलकत्ता कोरियर, एशियाटिक मिरर, ओरिएंटल स्टार तथा मुंबई से बंबई हेराल्ड अखबार1790 में प्रकाशित हुआ, और चेन्नई से मद्रास कोरियर आदि समाचार पत्रप्रकाशित होने लगे। इन समाचार पत्रों की विशेषता यह थी कि इनमें परस्पर प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सहयोग था। मद्रास सरकार ने समाचार पत्रों पर अंकुश लगाने के लिए कड़े फैसले भी लिए। मुबंई और मद्रास से शुरू हुए पत्रों की उग्रता हिक्की की तुलना में कम थी। हालांकि वे भी कंपनी शासन के पक्षधर नहीं थे। मई 1799 में सर वेलेजली ने सबसे पहले प्रेस एक्ट बनाया जो कि भारतीय पत्रकारिता जगता का पहला कानून था। एक प्रमुख बात जो देखने को मिली वो थी अखबारों को शुरू करने वाले लोगों की कठिनाई। बंगाल जर्नल केसंपादक बिलियम डुएन को भी पूर्ववत् संपादकों की तरह ही भारत छोड़ना पड़ा।

हिन्दी पत्रकारिता का उद्भव (1826-1867)
उदन्त मार्तण्ड: हिन्दी पत्रकारिता का आरंभ 30 मई 1826 ई. से हिन्दी के प्रथम साप्ताहिक पत्र उदंत मार्तण्डद्वारा हुआ जो कोलकाता से कानपुर निवासी पं. युगल किशोर शुक्ल द्वारा प्रकाशित किया गया था। श्री शुक्ल पहले सरकारी नौकरी में थे, लेकिन उन्होंने उसे छोड़कर समाचार पत्र का प्रकाशन करना उचित समझा। हालांकि हिन्दी में समाचार पत्र का प्रकाशन करना एक मुस्किल काम था, क्योंकि उस दौरान इस भाषा के लेखन में पारंगत लोग उन्हें नहीं मिल पा रहे थे। उन्होंने अपने प्रवेशांक में लिखा था कि ‘‘यह उदन्त मार्तण्डहिन्दुस्तानिया के हित में पहले-पहल प्रकाशित है, जो आज तक किसी ने नहीं चलाया। अंग्रेजी, पारसी और बंगला में समाचार का कागज छपता है उसका सुख उन बोलियों को जानने वालों को ही होता है और सब लोग पराएसुख से सुखी होते हैं। इससे हिन्दुस्तानी लोग समाचार पढ़े और समझ लें,पराई अपेक्षा न करें और अपनी भाषा की उपज न छोड़े।....’’   उदंत मार्तण्ड कामूल्य प्रति अंक आठ आने और मासिक दो रुपये था। क्योंकि इस अखबार को सरकार विज्ञापन देने में उपेक्षा पूर्ण रवैया अपनाती थी।यह दुर्भाग्य ही था किहिन्दी पत्रकारिता का उदय के साथ ही आर्थिक संकट से भी इसको रूबरू होनापड़ा।  यह पत्र सरकारी सहयोग के अभाव  और ग्राहकों की कमी के कारण कम्पनी सरकार के प्रतिबन्धों से अधिक नहीं लड़ पाया। लेकिन आर्थिक संकट और बंगाल में हिन्दी के जानकारों की कमी के चलते आखिरकार ठीक 18महीने के पश्चात सन् 1827 में इसे बंद करना पड़ा।  तमाम कारणों के बाद भी केवल 18 माह तक चलने वाले इस अखबार ने हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा देने का काम तो कर ही दिया।  
उन्होंने अपने अंतिम पृष्ठ में लिखा-
      "आज दिवस को उग चुक्यो मार्तण्ड उदन्त।
    अस्तांचल को जात है दिनकर अब दिन अंत।"

आर्थिक संकटों के चलते ज्यादातर हिन्दी समाचार पत्रों को काफी कठिनाइयाँ आई और उनमें ज्यादातर बंद करने पड़े। हिन्दी पत्रों की इस श्रंखला में श्रीभारतेन्दु हरिश्चन्द्र की कवि वचन सुधाऔरहरिश्चन्द्र चन्द्रिकातथाबालबोधिनी कोलकाता के भारतमित्रप्रयोग केहिन्दी प्रदीप’, कानपुर केब्राह्मणजैसे पत्रों ने हिन्दी पत्रकारिता की एक नई परंपरा स्थापित की। उस समय हिन्दी के पत्र साहित्यिक, सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण कोप्रसारित करने अथवा प्रभावित करने के उद्देश्य से निकाले जाते थे और इसअर्थ में वे देश के अन्य समाचार पत्रों से भिन्न नहीं थे, क्योंकि उस समयपत्रकारिता इतनी कठिन थी। शिक्षा के अभाव में उद्योग समाप्त हो रहे थे। जब  विश्व में कहीं लड़ाई होती थी तो उसकासीधा प्रभाव समाचार पत्रों पर पड़ता था। युद्ध के दौरान राजस्थान समाचारको दैनिक पत्र का दर्जा प्राप्त हो गया, परन्तु जब युद्ध बन्द हो गया तो वह दैनिक भी बंद हो गया। कोलकाता के भारतमित्रका भी दो बार दैनिक के रूप में प्रकाशन हुआ था परन्तु वह अल्प अवधि तक ही जीवित रह सका। कानपुर के श्री गणेश शंकर विद्यार्थी का प्रताप’, काशी का आज’, प्रयाग का अभ्युदयदिल्ली से स्वामी श्रद्धानन्द का अर्जुनऔर फिर उनके पुत्र पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति का वीर अर्जुनऐसे पत्र थे, जो निश्चित उद्देश्यों और विचारों को लेकर प्रकाशित किए गए थे। स्वाधीनता के समय तक दिल्ली में अनेक दैनिक पत्र थे। इनमें वीरअर्जुनसबसे पुराना था। 1936 ई. में हिन्दुस्तान टाइम्सके साथ इसका हिन्दी संस्करणहिन्दुस्तानभी प्रकाशित हुआ। मार्च 1947 ई. में नवभारत’, ‘विश्वमित्रऔर एक दैनिक पत्रनेताजीके नाम से प्रकाशित हुूआ था। उद्योग की दौड़ में इनमें से केवल दो पत्रहिन्दुस्तानऔर नवभारत टाइम्सही रह गए। वीर अर्जुनकई हाथों मेंं बिकाऔर लोकप्रिय हुआ, लेकिन उसका पुराना व्यक्तित्व और महत्व समाप्त हो गया। स्वाधीनता से पूर्व हिन्दी के अनेक दैनिक और साप्ताहिक पत्र विद्यमान थे। इनमें दिल्ली का वीर अर्जुन’, आगरा कासैनिक’, कानपुर का प्रतापवाराणसी का संसार, पटना का राष्ट्रवाणी और नवशक्ति  साप्ताहिक पत्र थे।  मध्य प्रदेश में खण्डवा का कर्मवीर राष्ट्रीय चेतना से ओत प्रोतलेखन के लिए प्रसिद्ध था। इलाहाबाद की इंडियन प्रेस से प्रकाशित होने वाला साप्ताहिक पत्र देशदूत था, जो हिन्दी का एक सचित्र साप्ताहिक पत्र था। उस समय के पत्रों में  चाहे वह सैनिक, प्रताप, अभ्यूदय अथवा आज जो भी हो उनमें राजनीतिक विचार एवं साहित्यिक सामग्री भरपूर मात्रा में थी। यशपाल की कहानियाँ सर्वप्रथम कानपुर के साप्ताहिक पत्र प्रताप में प्रकाशित हुई थी। उस समय हिन्दी में कुछ उच्च कोटि के मासिक पत्र भी थे जो विभिन्न स्थानों से प्रकाशित होते थे। हिन्दी पत्रकारिता में हिन्दी के कवियों, लेखकों, आलोचकों को मुख्य रूप से प्रोत्साहन दिया जाता था।  हिन्दी पत्र का संपादक हिन्दी  के विकास से जुड़ी गतिविधियों को प्रोत्साहन देना अपना कत्र्तव्य समझता था। उस समय की भाषा में इन्द्रजी का वीर अर्जुन,गणेश जी और उनके बाद नवीन जी का प्रताप, पराड़कर जी का आज, पं. माखनलाल चतुर्वेदी का कर्मवीर, प्रेमचंद जी का हंस और पं. बनारसी दास चतुर्वेदी का विशाल भारत था

हिन्दी पत्रकारिता के विकास युग
आदि युग- हिन्दी पत्रकारिता के उद्भव काल अर्थात् 30 मई 1826 को पं. जुगल किशोर शुक्ल द्वारा उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन आरंभ करने से 1872 तकउसका आदि युग रहा। भारतीयपत्रकारिता के उस आरंभिक युग में पत्रकारिता का उद्देश्य जनमानस में जागरुकता पैदा करना था। इस दौरान 1857 की क्रांति का प्रभाव भी लोगों पर देखने को मिला ।

भारतेन्दु युग- हिन्दी साहित्य के समान ही हिन्दी पत्रकारिता मे भी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अपना एक अलग ही स्थान है।  भारतेन्दु जी ने 1868 से ही पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखना आरंभ कर दिया था।पत्रकारों के इस युग में पत्रकारिता का उद्देश्य जनता में राष्ट्रीय एकता की भावना जागृत करना था। भारतेन्दु युग 1900 ई. सन माना जाता है। इस दौरान महिलाओं की समस्याओं पर आधारित बालबोधनी पत्रिका का भी प्रकाशन किया। मालवीय युग- 1887 में कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह ने मालवीय जी कि संपादकत्व में हिन्दोस्थाननाम समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ किया था। बाद में मालवीय जी ने स्वयं अभ्युदयनामक पत्रिका निकाली। बालमुकुन्द गुप्त, अमृतलाल चक्रवर्ती, गोपाल राम गहमरी आदि उस युग के प्रमुख संपादक थे। 1890 से 1905 तक के राजनैतिक परिवर्तन वाले  युग में पत्रकारिता कालक्ष्य भी राजनैतिक समझ को जागृत करना था।

द्विवेदी युग- पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा 1903 में सरस्वती का प्रकाशन करने के साथ ही पत्रकारिता को एक नया स्वरूप मिल गया। इस दौरानपत्रकारिता का विस्तार भी तेजी से हुआ। द्विवेदी युग का समय 1905 से1920 माना जाता है। द्विवेदी युग में देश के कोने-कोने से पत्र-पत्रिकाओं का बड़ी तादाद में प्रकाशन होने लगा।

गांधी युग- मोहनदास करमचन्द गांधी अर्थात महात्मा गांधी का हिन्दीपत्रकारिता बड़ा योगदान रहा है। गांधी युग 1920 से 1947 तक माना जाता है। इस दौर में स्वतंत्रता आंदोलनो में भी तेजी आई थी आजादी को प्राप्त करने की होड़ में इन आंदोलनो के साथ पत्रकारिताभी काफी विकसीत होने लगी।इनमहत्वपूर्ण वर्षो में ही हिन्दी और भारतीय पत्रकारिता के मानक निर्धारित हुए। उन्हीं वर्षों में ही विश्व पत्रकारिता जगत मे भारतीय पत्रकारिता की विशेष पहचान बनी। शिवप्रसाद गुप्त, गणेशशंकर विद्यार्थी, अम्बिका प्रसादवजपेयी,माखनलाल चतुर्वेदी, बाबूराम विष्णु पराड़कर आदि स्वनामधन्य पत्रकारउसी युग के हैं। कर्मवीर, प्रताप, हरिजन, नवजीवन, इंडियन ओपीनियन आदिदर्जनों पत्र पत्रिकाओं ने उस युग में स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई उर्जा प्रदान की ।

आधुनिक युग- स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर अब तक के वर्षों की हिन्दी पत्रकारिता की विकास यात्रा को आधुनिक युग में रखा जाता है। इस युग में पत्रकारिता के विषय क्षेत्र का विस्तार और नए आयामों का उद्भव हुआ है आधुनिक दौर में भाषा और खबरों के चयन में भी काफी परिवर्तन देखने का मिल रहे हैं। खासतौर पर अखबारों की खबर पर समाज की आधुनिक सोच का प्रभाव भीपूरी तरह से देखने को मिल रहा है। इतना ही नहीं अखबारों में प्रबंधन औरविज्ञापन के बड़ते प्रभाव का असर भी हो रहा है। हर दिन नए नए अखबार एक नए स्वरूप में लोगों के सामने अ रहे है। खोजी पत्रकारिता का समावेश भी तेजी से अखबारों को अपना चपेटे में ले रहा है। ज्यादातर अखबार इंटरनेट पर भी अपने सारे संस्करण उपलब्ध करा रहे हैं। अन्य किताबों से संकलित करके पिछले कई सालों पुराने समाचार पत्र के विकास को जानने का प्रयास किया है। कुछ ऐसे अखबार और उनके प्रकाशन के वर्षो का विवरण हम छात्रों की सुविधा के लिए दे रहें है।

एक शताब्दी से अधिक पुराने समाचार पत्र
1 बाम्बे समाचार, गुजराती दैनिक, बंबई  : 1822
2 क्राइस्ट चर्च स्कूल (बंबई शिक्षा समिति की पत्रिका)  : 1825
  द्विभाषी वार्षिक पत्र, बंबई
3 जाम-ए-जमशेद, गुजराती दैनिक, बंबई  : 1832
4 टाइम्स आफ इंडिया अंग्रेजी दैनिक, बंबई : 1838
5 कैलकटा रिव्यू, अंग्रेजी त्रैमासिक कलकत्ता  : 1844
6 तिरुनेलवेलि डायोसेजन मैगजीन, तमिल मासिक तिरुनेलवेलि : 1849
7 एक्जा़मिनर, अंग्रेज़ी साप्ताहिक, बंबई : 1850
8 गार्जियन, अंग्रेज़ी पाक्षिक, मद्रास  : 1851
9 ए इंडियन, पुर्तगाली साप्ताहिक, मारगांव : 1861 
10 बेलगाम समाचार, 10 मराठी साप्ताहिक बेलगाम  :   1863
11 न्यू मेन्स ब्रैड्शा, अंग्रेज़ी मासिक कलकत्ता : 1865
12 पायनीयर, अंग्रेज़ी दैनिक, लखनऊ : 1865
13 अमृत बाजार पत्रिका, अंग्रेज़ी दैनिक कलकत्ता   : 1868
14 सत्य शोधक, मराठी साप्ताहिक, रत्नगिरी    : 1871
15 बिहार हैरॉल्ड, अंग्रेज़ी साप्ताहिक, पटना      : 1874
16 स्टेट्समैन, (द) अंग्रेज़ी दैनिक, कलकत्ता      : 1875
17 हिन्दू, अंग्रेज़ी दैनिक, मद्रास               : 1878
18 प्रबोध चंद्रिका, मराठी साप्ताहिक, जलगांव    : 1880
19 केसरी, मराठी दैनिक पुणे                 : 1881
20 आर्य गजट, उर्दू साप्ताहिक, दिल्ली          : 1884
21 दीपिका, मलयालम दैनिक, कोट्टायम        : 1887
22 न्यू लीडर,अंग्रेजी साप्ताहिक, मद्रास         : 1887
23 कैपिटल, अंग्रेजी साप्ताहिक, कलकत्ता        : 1888

प्रमुख प्रकाशन समूह और उनकी पत्रिकाएं :

1-बेनट कॉलमेन एण्ड कम्पनी लि. (पब्लिक लि.)- टाइम्स आफ इंडिया ,इकोनेमिक टाइम्स (अंग्रेजी दैनिक 1961), नवभारत टाइम्स (हिन्दीदैनिक,1950), महाराष्ट्र टाइम्स (मराठी दैनिक,1972),  सांध्य टाइम्स (हिन्दी दैनिक,1970), धर्मयुग(हिन्दी पाक्षिक,1957), टाइम्स आफ इंडिया (गुजराती दैनिक,1989)

2-इंडियन एक्सप्रेस (प्रा. लि. कम्पनी)- लोकसत्ता (मराठी दैनिक,1948), इंडियन एक्सप्रेस (अंग्रेजी दैनिक1953) फाइनेशियल एक्सप्रेस (अंग्रेजी दैनिक 1977),लोक प्रभा (मराठी साप्ताहिक 1974), जनसत्ता (हिन्दी 1983),समकालीन(गुजराती दैनिक 1983) स्क्रीन (अंग्रेजी साप्ताहिक,1950), दिनमानी (तमिल दैनिक,1957)

3-आनन्द बाजार पत्रिका(प्रा.लि.)- आनन्द बाजार पत्रिका (बंगाली दैनिक,1920), बिजनेस स्टैण्डर्ड (अंग्रेजी दैनिक 1976), टेलीग्राफ (अंगे्रजी दैनिक1980), संडे (अंग्रेजी साप्ताहिक1979), आनन्द कोष (बंगाली पाक्षिक1985),स्पोर्ट्स वल्र्ड  (अंग्रेजी साप्ताहिक,1978)  बिजनेस वल्र्ड (अंग्रेजी पाक्षिक,1981)

4-मलायालम मनोरमर लि. (पब्लिक लि.)- मलयालम मनोरमा (दैनिक,1957)द वीक (अंगे्रजी दैनिक1982), मलयालम मनोरमा (मलसालम साप्ताहिक,1951)

5- अमृत बाजार पत्रिका प्रा. लि.- अमृत बाजार पत्रिका (अंगे्रजी दैनिक1868),युगान्तर(बंगाली दैनिक,1937), नारदन इंडिया पत्रिका(अंगे्रजी दैनिक1959), (हिन्दी दैनिक 1979)

6-हिन्दी समाचार लि(पब्लिक लि.)- हिन्दी समाचार (उर्दू दैनिक,1940 ,) पंजाब केसरी (हिन्दी दैनिक,1965)

7- स्टेट्मैन लिमिटेड (प्रा. लि.)- स्टेट्मैन (अंगे्रजी दैनिक1875)

8- मातृभूमि प्रिंटिंग एण्ड पब्लिशिंग कम्पनी लि.(प्रा. लि.)- मातृभूमि डेली (मलयांलम दैनिक ,1962), चित्रभूमि (मलयालम साप्ताहिक11- उषोदया पब्लिकेशन प्रा. लि.-
रानी मुथु (तमिल मासिक 1969), इन्दू (तेलगु दैनिक 1973), न्यूज टाइम्स (अंगे्रजी दैनिक1984)

12- कस्तूरी एण्ड संस लिमेटेड (प्रा. लि.)- हिन्दू (अंगे्रजी दैनिक 1878),स्पोटर्स स्टार (अंगे्रजी साप्ताहिक 1878), फ्रंट लाइन (अंग्रेजी पाक्षिक)

13-द प्रिंटर्स (मैसूर लिमिटेड)- दक्खन हैरल्ड(अंगे्रजी दैनिक 1948), प्रजावागी (कन्नड़ दैनिक 1948),   सुधा (कन्न्ड साप्ताहिक 1948), मयुर (कन्न्ड मासिक1968)

14-सकाल पेपर्स (प्रा. लि.)- सकाल (मराठी दैनिक,1948), संडे सकाल (मराठी साप्ताहिक 1980), साप्ताहिक सकाल (मराठी साप्ताहिक 1987), अर्धमानियन (मराठी साप्ताहिक 1992),

15-मैं जागरण प्रकाशन प्रा.लि.- जागरण (हिन्दी दैनिक 1947)

16-द ट्रिब्यून ट्रस्ट- (अंगे्रजी दैनिक 1957), ट्रब्यून (हिन्दी दैनिक 1978),ट्रब्यून (पंजाबी दैनिक 1978)

17-लोक प्रकाशन (प्रा. लि.)- गुजरात समाचार (गुजराती दैनिक 1932)

18-सौराष्ट्र ट्रस्ट- जन्म भूमी (गुजराती दैनिक, 1934), जन्मभूमी प्रवासी (गुजराती दैनिक 1939), फुलछाव (गुजराती दैनिक ,1952), कच्छमित्र (गुजराती साप्ताहिक ,1957), व्यापार (सप्ताह में दो बार,गुजराती, 1948)

19-ब्लिट्ज पब्लिकेशन्स(प्रा. लि.)- ब्लिट्ज न्यूज मैगजीन (अंगे्रजीसाप्ताहिक,1957), ब्लिट्ज (उर्दू साप्ताहिक,1963), ब्लिट्ज (हिन्दी साप्ताहिक1962), सीने ब्लिट्ज (अंगे्रजी साप्ताहिक)

20-टी. चन्द्रशेखर रेड्डी तथा अन्य (साझेदारी)- दक्खन क्रोनिकल (अंगे्रजी दैनिक 1938),आंध्रभूमी (तेलगु दैनिक, 1960),आंध्र भूमी सचित्र बार पत्रिका (तेलगु साप्ताहिक 1977)

21-संदेश लिमिटेड (पब्लिक लिमिटेड)- संदेश (गुजराती दैनिक 1923), श्री (गुजराती साप्ताहिक 1962), धर्म संदेश (गुजराती पाक्षिक1965)

Wednesday, 26 October 2016

आइए साक्षात्कार लेना सीखें


सिनेमा : इश्तहारनामा ज़िन्दगी के’’
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के सहायक प्राध्यापक तथा सिने-आलोचक राजीव रंजन प्रसाद से
         वर्तमान सिनेमा के बारे में 
       सांस्कृतिक-पत्रकार अभिमा की सीधी बातचीत

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राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के प्रयोजनमूलक हिंदी के विद्यार्थियों के लिए
प्रस्तुत: साक्षात्कार माॅडल-1
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भारतीय सिनेमा आज किस पड़ाव पर है? वह बीते ज़माने से कितना आगे है?
सिनेमा बीते ज़माने से आगे है या पीछे; यह सवाल बाद का है। पहला सवाल तो यही है कि आज सिनेमा आम ज़िदगी में अपनी दखल कैसी रखता है या कि किस भूमिका और सरोकार से संयुक्त-सम्पृक्त है। यह सवाल समीचीन है क्योंकि सिनेमा आम-आदमी के जीवन से अभिन्नतः जुड़ा है। सिनेमा समाज के प्रगतिशील, उन्नत, समृद्ध, जागरूक, चेतस, विवेकवान, शक्तिशाली होने का ज़िन्दा सबूत है। सिनेमा से देश की सूरतेहाल का पता चल सकता है। समाज की सोच, मानसिकता और दृष्टि का अंदाजा हो सकता है। सिनेमा से किसी राष्ट्र के लोगों के सोचने केपैटर्न’, बोलने के ढंग तथा निर्णय लेने के तरीके का पता तुरंत चल जाता है क्योंकि सिनेमा में एकालाप मोनोलाॅग ज्यादा देर नहीं चल पाता। दूसरे लोगों को शामिल होना पड़ता है या करना होता है। उसमें घर, बाहर, परिवार, समाज, काॅलेज, विश्वविद्यालय, बाज़ार, राजनीति सबको शामिल करने पड़ते हैं। सिनेमा मास-प्रोडक्कशन है और जनता के लिए कोई बात जब कही जाती है, तो जनता का उसमें किसी किसी रूप में अथवा कहीं कहीं उपस्थित होना अनिवार्य हो जाता है। इसलिए सिनेमा वन-वे लेक्चर नहीं है यह जीवन के समानांतर जीवन है। बस मुख्य फर्क यह है कि वहटाइम स्लाॅटसे बँधा होता है। उसके शुरू होने के बाद समाप्त होने की बाध्यता है। सिनेमा की यह सबसे बड़ी खूबी है और उसकी सीमा भी है।

इसकी भूमिका को सामाजिक-सांस्कृतिक दष्टि से देखें, तो क्याइक्वेशन  बनते हैं?
सामाजिक यथार्थ, स्थिति, मनोदशा, मनोवृत्ति, भाषा, उच्चार, संवाद, बोल, कार्यकलाप, शासन-व्यवस्था, राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, परम्परा, कला, साहित्य आदि बहुविध मसलों से दरस-परस रखने तथा उन्हें प्रभावित करने में सिनेमाई माध्यम की भूमिका बेजोड़ है। सिनेमा वह विश्वसनीय कलारूप है जिसका सौन्दर्यशास्त्रजैनुइनमानव-समाज निर्धारित करता है; सिर्फ और सिर्फ विज्ञान-तकनीक तथा प्रौद्योगिकी की अतिरेकी दुनिया हरग़िज नहीं। यद्यपि सिनेमा अपनी प्रभावशीलता के अकूत ताकत द्वारा तकनीकी-प्रौद्योगिकी के हरजैनेरेशन, ‘टाइपएवंफ्लेवरको खुद में सफलतापूर्वक समेट लेता है; तथापि वह सदैवस्टीरियोटाइपबना रहे, यह संभव नहीं है। सिनेमा का यही शीलगुण इंगमार बर्गमैन को काफी अपील करता है। उन्होंने  खुले तौर पर स्वीकार किया है,-‘‘मैंने सिनेमा को माध्यम के रूप में इसलिए चुना क्योंकि सपनों के लिए जगह बनाने, अनुभवों को, फंतासियों को उपयोग कर लेने की इससे बेहतर कोई जगह हो भी नहीं सकती थी।‘’

इसीलिए सिनेमा को जीवन का पुनःसृजन कहा गया है, क्यों?
सिनेमा अपनी संसृष्टि में अन्तर्जात संवेदना को उभार सकता है। भीतर की बेचैनियों को आवाज़ दे सकता है, तो आन्तरिक हूक-टीस-कसक अथवा खुशी-उल्लास-प्रसन्नता को बिना किसी बनावटीपन/घालमेल के हमारे सामने हू--हू प्रस्तुत कर सकता है। विषय-सन्दर्भ, मुद्दे-समस्याएँ चाहे जो हों; सिनेमा उनके साथ संगति करना तथा अच्छी तरह साथ निभाना बखूबी जानता है। यह जीवन के समानांतर जीवन की रचना करने का मामला है जिसमें यांत्रिक-गतिकी से पहले सामाजिकी और मानविकी का मसला आता है। इन्हीं अर्थों में सिनेमा जीवन का आभरण है; उसका नवनिर्माण है। अर्थात् वह मूल्यों के रूप में जीवन का पुनःसृजन है।

भारत में फिल्म बनाने को लेकर कैसी दिलचस्पी रही है; कुछ बताएँ।
फिल्म निर्माण की दिशा में गंभीर और विश्वसनीय बहुतेरे काम हुए हैं। अकादमिक शोध भी बहुत हुए हैं। क्षेत्रिय फिल्मों ने छोटे बजट का बड़ा और महत्त्वपूर्ण काम किया है। सिने-माध्यम से जुड़ी व्यक्तिगत संस्थाओं ने भी बहुत सारे अनुशीलन, परिशीलन, खोज, गवेषणा, शोध आदि किए हैं। यह और बात है, उनकी उपयोगिता, गुणवत्ता, सार्थकता, महत्त्व, भूमिका आदि को लेकर बहस-मुबाहिसे जारी हैं। विचार-विमर्श तथा संगोष्ठी-कार्यशालाओं की भारी धूम है। भारत में विभिन्न भाषाओं में फिल्में हर साल बनती हैं। हिंदी के बाॅलीवुड में अकेले सैकड़ों फिल्में हर साल तैयार होती हैं। बाज़ार के फार्मूले से लेकर जनता की नब्ज़ पहचानने की दमखम रखने वाली फ़िल्में साधारण चित्रपटों से लेकर बड़े सिनेमाघरों तक में हर हफ़्ते टंग रही है। मल्टीप्लेक्स के ज़माने ने सिनेमा की छवि को अधिकग्लैमर्सबना दिया है। साप्ताहांत के मौके पर सिनेमाघरों के इर्द-गिर्द जुटी युवाओं की फौज सिनेमा का वास्तविक समाजशास्त्र बयां करते हैं। उच्चशिक्षित कामकाजी वर्ग से लेकर संभ्रान्त मध्यवर्ग तक में सिनेमा को लेकर जबर्दस्तपैशनहै, दिलचस्पक्रेजहै। हमारे उत्तर-पूर्व में हिंदी फिल्मों का प्रभाव जबर्दस्त है। अरुणाचल प्रदेश में हिंदी को समझने में आसानी होती है, बोलने में सुगमता है तो इस माहौल को बनाने या कहें सिरजने में बाॅलीवुड का योदगदान सबसे अहम है।
अरुणाचल में सिनेमा की दख़ल की बात करें तो आश्चर्यजनक तथ्य मिलेंगे। यहाँ हिंदी फिल्में बनती हैं जिसे अरुणाचली हिंदी का सिनेमा कहा जाता है।
अरुणाचल में मुख्य रूप से अरुणाचली बोलियों में फिल्म बनी है। अरुणाचल की पहली हिन्दी फिल्म मेरा धर्म मेरी माँ है। अरुणाचल में कई फिल्में बनी। अपियांग तायेंग के अनुसार-’ङोक गीदांग यह आदि भाषा मे बनी। आयींग आपोङ भी आदी भाषा में बनी। इस फिल्म में शराब से जुड़ी समस्याओं को दिखाया है। मउडा मउरा यह फिल्म न्यीशी भाषा में बनी है। क्रासिंग ब्रीज यह फिल्म साल 2013 में बनाया गया। यह सेरदुकपेन भाषा में बनी है और इसका निर्देशक सांगे दोरजी ठोगंदोक है इस फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म पुस्कार भी मिला। सोनाम यह साल 2006 में बनी। यह फिल्म एक उपन्यास पर आधारित है। यह मोनपा भाषा में है। अरुणाचल में फिल्में ज्यादातर मातृभाषा में ही बने हैं। राजीव गाँधी विश्वविद्यालय की फंक्शनल हिंदी की छात्रा रह चुकी अपियांग तायेंग बताती हैं कि-‘’अरुणाचल में हिन्दी सिनेमा का विकास 1 जनवरी 1976 . से शुरू होती है जिस वर्ष अरुणाचल की हिन्दी में पहली फिल्म बनीमेरा धर्म मेरी माँ  इसके बादविश्वासघातनामक एक फिल्म आयी सन् 2007 में एक और फिल्म हिन्दी भाषा में बनी मैं इंडियन, हम इंडियन जिसका निर्देशन श्री दी. के. थोङगुन ने की और कहानी भी उन्होने ही लिखा। यह फिल्म एक प्रेम कहानी है। इसके बादडॉ. आबो नामक और एक हिन्दी में बनी फिल्म आयी जिसकी मुझे ज्यादा जानकारी नहीं मिली है। 2015 कोईटानगर जीरो किलोमीटर बना जिसका निर्देशन ताई तागुंग ने की है। यह फिल्म एक शहर में रहने वाले गरीब युवक की कहानी है‘’

सिनेमा कला और विज्ञान दोनों माने जाते  हैं, क्या राय है इस बारे में आपकी?
सार्वभौम सत्य है कि सिनेमा वैज्ञानिक कलारूप है। रूप और अन्तर्वस्तु का दृश्यविधान  इस विधा में पूर्णतया समोया हुआ है। वस्तुतः यह सिनेमाई कला एवं विज्ञान पक्ष के अंतःबाह्य सौन्दर्यशास्त्र को व्याख्यायित तथा अन्तर्जात रहस्यों का उद्घाटन करने का सर्वप्रमुख माध्यम है। इन अर्थ-सन्दर्भों में भारतीय सिनेमा आदर्श कल्पनाशीलता का अनुसरण करते हुए भी समकालीन यथार्थ तथा ज़मीनी सचाई से गहरे जुड़ा हुआ है। सामयिक पारिस्थितिकी-तंत्र को बारीकी संग पकड़ने और उनका स्थूल-सूक्ष्म प्रकटीकरण करने में सिनेमा ने बेमिसाल भूमिका अदा की है। दरअसल, जनसमाज से विमुख कलाकृति अपना दीर्घकालीन वजूद नहीं रखती हैं। सामयिक सचाई को आरोपित अथवा प्रायोजित घटनाक्रम द्वारा अतिरंजित बनाया जा सकता है, पर उसमें समाज के सरोकार, जिंदगी की गहन अनुभूति, मानवीयता के चेतस पहलू शामिल नहीं किए जा सकते हैं। भारतीय सिनेमा का चितेरा फिल्मकार गुरुदत्त कम वक़्त तक जिंदा रह सके, लेकिन उनके काम को बिसारना भारतीय जनता के लिए संभव नहीं है। उनका कद आदमकद बुत नहीं, अपितु जन-संवेदना के असल सूत्रधार के रूप में मान्य है। उन्होंने हिंदी सिनेमा कोकागज के फूल’, ‘प्यासा,  ‘चैदहवीं का चाँद,  ‘सीआईडी’,  ‘साहिब बीवी गुलाम’, ‘आरपार,  ‘जिद्दीजैसी अनमोल फिल्में दी है।

हिंदी सिनेमा के बारे में थोड़ा और विस्तार से बताएँ, तो अच्छा होगा।
हिंदी सिनेमा के रजत-पटल की बात करें, तो यह बेहतरीन अतीत का साक्षी रहा है। पहली बार 1913 . में इसका परिचय हम भारतीयों को मिला। दादा साहब फाल्के के अथक प्रयास सेराजा हरिश्चन्द्रका दृश्य-मंचन हुआ। सिनेमा ने पहली बार नाटक अथवा रंगमंचीय अभिनय से अलग विधा के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी। शुरुआत में लोगों की दिलचस्पी कुछ खास नहीं रही। मूक सिनेमा होने के कारण यह माध्यम लोगों से चाहकर भी अपनापा नहीं गाँठ सका। हाँ, कुछ लोगों की दिलचस्पी को जरूर बनाए रखा। इन्हीं उत्साही लोगों के दमखम पर भारतीय सिनेमा का मूक-संस्करण वर्षों चलता रहा।

तत्कालीन सिनेमा में काम करने वाले लोग कौन थे?
मशहूर थियेटर से जुड़े कलाकारों ने इस विधा को हाथोंहाथ लिया। लोकप्रियता की चासनी एक दिन में तैयार नहीं होती, यह सच है। शनैः शनैः समय की धारा में इनका विकास तथा परिपक्व तरीके से निर्माण होता है। भारतीय सिनेमा अपने को इसी नज़रिए से रचने-बुनने में जुटी रही। इस समयांतराल में कई कलाकार इससे जुड़े। सिनेमा से जुड़े विभिन्न अंतःकार्यों को सबने मिलकर सफलतापूर्वक संपन्न किया। अपनी विशेष कुशलता, दक्षता और प्रवीणता के माध्यम से वे भारतीय सिनेमा को एक नए मुकाम की ओर ले गए।आलमआराने फिल्म-धारा में ध्वनि को सृजित किया। अब दृश्य के साथ आवाज़ भी विराजमान हो गई। इस तरह 1931 . के बाद सिनेमा नई चाल में ढली। बदलाव के अनगिनत चिह्न हमें खोजने से मिल जाएंगे; बशर्ते हिंदी सिनेमा पर बात करने की असीम धैर्य हो; और तबीयत तो खैर होनी ही चाहिए।

माफ़ करेंगे सर, हम अतीत के चलचित्र को इस बातचीत में अधिक शामिल करें, तो भी मेरे मन में एक सवाल थी  कि स्वाधीनता के उपरांत आजाद देशवासियों ने सिनेमा को किस रूप में देखा या कि इस बारे में लोगों की सोच क्या थी?
स्वतंत्रता के बाद भारत में सिनेमा एक महत्त्वपूर्ण तथा मजबूत विधा बनकर उभरा। सिने-कार्य से जुड़े लोग प्रतिभाशाली थे और परिश्रमी भी। उन्होंने सिनेमा में अपने समय-समाज को रोप दिया। यह माध्यम सच कहने वाला दर्पण बना। समाचार-पत्र अथवा पत्रिका की तरह यह गूंगे-बहरे नहीं थे। यह बात-बात पर टेसुआ बहाने वालासोप आॅपेराभी नहीं थे।

फिर ऐसा क्या था विशेष जिसे भारतीय सन्दर्भ में नोटिस किया जाना जरूरी था?
तत्कालीन सिनेमा में भारतीयपन की रौनक थी। स्वतन्त्रता की चपलता थी, तो सांस्कृतिक बहुलता का स्वाभिमानी चेहरा था सबके पास। रिश्तों की मर्यादा और नैतिकता की चासनी में पगा यह वह रामवाण था जिसमें भारतीयता की झलक साफ देखे जा सकते हैं। इसी दौर में जीवन के समान जीवन को परदे पर समानांतर  ढंग से उतारा गया। सिनेमा से जुड़े लोगों ने इसके लिए अपनी पूरी उम्र खपा दी। अभावग्रस्त जिंदगी के बीच गुजर-बसर करते हुए उन्होंने अपना पेट जिलाए रखा। आज की तारीख़ में सिनेमा का वह दौर अविश्वसनीय मालूम देता है जबकि यही सोलह आना सच है।

...आपके जे़हन में कुछ फिल्मों का नाम हों, तो बताते चलें।
फिल्में बहुत बनी। असर भी कमोबेश सबका रहा। कम या अधिक। हिंदी सिनेमा का दस्तावेजीकरण ज़बानी करना ग़लत होगा तब भी कुछ नाम जे़हन में जरूर बसे हैं। कालक्रम का ध्यान तो नहीं रख सकता, लेकिन नाम अवश्य ले सकते हैं। जैसे-‘प्यासा’, ‘जागते रहो’, ‘मदर इंडिया’, ‘जागृति’, ‘दो आँखे बारह हाथ’, ‘श्री 420’, ‘साहब बीवी गुलाम’, ‘फिर सुबह होगी’, ‘सुजाता’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘परिणिता’, ‘अंकुर’, ‘आक्रोश’, ‘भूमिका’, ‘मंथन’, ‘दुविधा’, ‘अर्द्धसत्य’, ‘सलीम लंगडे पर मत रो’, ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’, ‘स्पर्श’, ‘कथा’, ‘चश्मे--दूर’, ‘मृगया’, ‘दामुल’, ‘पार’, ‘मंडी’, ‘मीर्च-मसाला’, ‘दीक्षा’, ‘द्रोहकाल’, ‘हजार चैरासी की माँ’, ‘सतह से उठता आदमी’, ‘लगान’, ‘सत्या’, ‘बेंडिट क्वीन’, ‘आँधी’, ‘कुर्सी’, ‘सत्ता’, ‘तमस’, ‘डोर’, ‘फायर’, ‘वाटर’, ‘गुलाल’, ‘क्वीन’, ‘थ्री इडियट’, ‘अलीगढ़’, ‘नीरजा’, ‘पीकू’, ‘पिंकआदि। 

बहुत से महत्त्वपूर्ण निर्देशक और उनकी फिल्में तो एकदम से रह गईं...,
यह होगा ही। सायास याद करने से कई जरूरी नाम छूट जाते हैं। इरादतन ऐसा नहीं होता। नाम लेना एकसैम्पलिंग माॅडहै। पर उससे बहुत कुछ अंदाजा हो जाता है। भारतीय फिल्म की प्रकृति और उनमें पैबस्त विचारधारा से रू--रू हो लेते हैं। अब आपने चूँकि डायरेक्टर की बात कही, तो उनकी नाम लूँ तो हो सकता है कि कुछ और फिल्में इसमें जुड़ जाएँ। प्रकाश झा गंभीर निर्देशक हैं। उनकी फ़िल्में हैं-‘दामुलजो 1984 . में बनी; ‘मृत्युदण्डसन् 1997 में बनी। बिहार के चर्चित अँखफोड़वा काण्ड पर बनी फिल्मगंगाजल’2003 . में प्रदर्शित हुई। इसी तरहअपहरण’ 2005 ., ‘राजनीति’ 2009 . में बनी। सरकारी आरक्षण के ऊपर केन्द्रित फिल्मआरक्षणऔर नक्सलबाड़ी की समस्या पर केन्द्रित फिल्मचक्रव्यूह भी प्रकाश झा ने बनाई है। फ़रहान अख़्तर नेदिल चाहता हैआमिर खान के साथ बनाया तो उनकी फिल्मलक्ष्यऔरक्या कहना भी सफल रही है। सफल निर्देशक के रूप में राजकुमार हिरानी का नाम प्रमुख है जिन्होंनेमुन्नाभाई एम.बी.बी.एस.’ फिल्म से खूब शोहरत बटोरी। उनकी अन्य फिल्में हैं-‘लगे रहो मुन्नाभाई’, ‘थ्री इडियट्स’, ‘मुन्नाभाई चले अमेरिका इसी तरह राजकुमार संतोषी का नाम लिया जा सकता है जिनकी फिल्में बेहद चर्चित रही हैं। जैसे-‘घायल’, ‘दामिनी’, ‘अंदाज अपना-अपना’, ‘चाइना गेट’, ‘पुकार’, ‘लज्जा’, ‘दि लिजेंड आॅफ भगत सिंह’, ‘खाकी’, ‘हल्ला बोल’, ‘अजब प्रेम की गज़ब कहानी विधु विनोद चोपड़ा की फिल्मों ने भी खूब कमाल के प्रदर्शन किए। उनकी फिल्में हैं-‘1942: लव स्टोरी’, ‘परिन्दा’, ‘ख़ामोंश’, ‘एकलव्य: राॅयल गार्ड’...

राजीव सर, आमोल पालेकर और प्रियदर्शन का काम भी अच्छा रहा है बाॅलीवुड में।
फ़िल्म निर्देशन का काम निर्देशक शिद्दत और बड़ी गंभीरता से करते हैं। हृषिेकेश मुखर्जी, मनमोहन शर्मा, अब्बास मस्तान, प्रकाश मेहरा, रमेश सिप्पी, यश चोपड़ा मंजे निर्देशक के रूप में मशहूर रहे हैं। सईं परांजपे और सईद मिर्जा के काम को भला कौन भूल सकता है। आमोल ने खुद बेहतरीन फिल्में बनाई हैं। जैसे-‘थोड़ा रुमानी हो जाए, ‘कल का आदमी’, ‘पहेलीआदि। इसी प्रकार का काम प्रियदर्शन का रहा है। उसकी फिल्में हैं-‘दे दनादन’, ‘बिल्लू’, ‘काँचीवरम’, ‘भूल-भुलैया’, ‘मेरे बाप, पहले आप’, ‘ढोल’, ‘चुपके-चुपके’,मालामाल विकली, ‘गरम मसाला, ‘हलचल’, ‘डोली सजा के रखनाआदि।

हिंदी सिनेमा के सौ वर्ष का अतीत बेहद सुनहला है। औसत-साधारण से लेक उम्दा और बेहतरीन बहुत काम हुए हैं। निर्देशकों के नाम की लिस्ट बहुत लम्बी है।
बहुत नाम है जिन्हें इग्नोर नहीं किया जा सकता। आज की पीढ़ी सरोकार से कम जुड़ी है। वह बुनियाद को नहीं टटोलती। उसके लिए अतीत यानी बीता हुआ कल बकवास है। उसे आज केफ्लेवरमें ताजगी, नवीनता, मनोरंजन, संदेश, कहानी, कथावस्तु, संगीत, नृत्य, रोमांस, प्रेम, थ्रिलर, सस्पेंस आदि सबकुछ चाहिए। मेरी दीवानगी रही फिल्म में, फिल्म बनाने वाले में, उसे लिखने वाले में। लेकिन अब इन इंटरेस्ट का कोई कद्र नहीं है।

ऐसा क्यों कह रहे हैं?
देखिए, अब विद्यार्थी पढ़ना नहीं चाहते हैं या पढ़ना अपने मन-मुताबिक, इच्छानुसार चाहते हैं। उनके पास जानने के लिए दूसरे विषय हैं, सामग्री है। अक्सर उनकेटेस्टसे अपना तालमेल नहीं बिठता है। वहनाॅनवेज जोक्स सुनना पसंद करते है। वर्चुअल और आग्युमेटिंग गेम्स के आदी हैं। अब चूँकि क्लासरूम में ऐसे ही लड़के-लड़कियाँ अधिक हैं। इसलिए उन्हें पढ़ाने खातिर उनके अनुसार अपना कैरेक्टर एडजस्ट करना होगा। अब अध्यापक भी अभिनयकर्ता की भूमिका में है। वह उन्हें पढ़ाता है कि वे पढ़कर परीक्षा पास कर लें। वे कुछ सीख रहे हैं या नहीं इसकी तहकीकात की, तो अपनी नौकरी खतरे में पड़ जाएगी। अब सबकुछ कागजी निर्देश में कागज भर ही सही होना सन्तुलित माना जाता है। बाकी ग़लत-सही पर लोग ध्यान नहीं देते। दो-चार गंभीर क्लासेज होने पर वे अगले दिन से कक्षा में बैठते ही नहीं। आपकी सारी तैयारी और अथक मेहनत की बाट लग जाती है।  आप उनके आने देने के लिए अपनी विषय पर मजबूत पकड़ को इरादतन कमजोर करते हैं। उनके साँचे में खुद को ढालते हैं।

क्या उत्तर-पूर्व के विद्यार्थियों को लेकर ऐसा सोचना है आपका?
सोचना कुछ नहीं है। पढ़ाने को कुछ नहीं मिलता तो खीज होती है, हो सकती है किसी को। अकादमिक वातावरण बेहद निराश करने वाले हैं। क्लासरूम की स्थिति इतने खराब हैं कि आप वहाँ से बेहतर लेक्चर नहीं दे सकते। धुल-धकड़ और गंदगी से सने कमरे में आप किसी को क्या और कैसी बात बताएँगे। किसी के कान पर जूँ नहीं। वे सैलरी देते हैं पर अच्छे ढंग से पढ़ाने की सुविधा नहीं। कहने पर कोई सुनवाई नहीं होती। आप क्या इनोवेटिव आउटपुट देंगे। दूसरे विद्यार्थियों की शिथिलता आपके जोश और समर्पण का कमर तोड़ देती है। उत्तर-पूर्व नहीं पूरे देश में शिक्षा के गुणवत्ता में जबरना कमी लाने का इरादतन कोशिश हो रहा है। अकादमिक प्रशासक शोध-अनुसन्धान को लगातार हतोत्साहित कर रहे हैं। फिर क्लासरूम में विद्यार्थियों से गंभीर बातचीत कैसे हो सकती। उन्हें भारतीय निर्देशन, अभिनय, कथानक, गीत, संगीत, नाटक, नृत्य, कला, साहित्य आदि के बारे में तो पहले कुछ पता नहीं; फिर उनसे यह क्या उम्मीद की जाएगी कि वह विश्व के महान निर्देशकों को जानें। उनके काम के बारे में हमसे बात करें। हम जहाँ जिस धुरी पर हैं वहीं से फैनिली, गोदार, गोरिसिकोवा, स्टेनले क्यूबैक, बुडी इलेज, वे कोकिला आदि को सादर नमस्कार करते हैं।

यह तो बेहद निराशाजनक स्थिति है। हम अपनी बातचीत को क्या इसी नैराश्य के साथ समाप्त करें।
नहीं, बिल्कुल नहीं। हम इस माहौल को दुरुस्त करेंगे। चाहे वक्त जितना लगे। हम लगातार अपने को बेहतर कल के लिए तत्पर रखेंगे। हमारे प्रयास से यथास्थिति जरूर बदलेंगी, यह उम्मीद ही हमारा एकमात्र ध्येय तथा अकादमिक लक्ष्य है।