................................
- हिन्दी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय एवं उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान, लखनऊ के तत्त्वावधान में आयोजित हुआ राष्ट्रीय सेमिनार
- केन्द्रीय
हिन्दी संस्थान, आगरा के निदेशक प्रो.
नन्दकिशोर पाण्डेय को शाॅल, गमछा, स्मृति-चिह्न भेंट
- राजीव गाँधी
विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति प्रो. अमिताभ मित्र ने अभिनन्दन-पत्र दे कर प्रो.
नन्दकिशोर पाण्डेय को किया सम्मानित
- पूर्वोत्तर के
भाषा, साहित्य, संस्कृति को
लेकर आयोजित इस बौद्धिक समागम में पूर्वोत्तर सहित देशभर से जुटे विद्धान, प्राध्यापक एवं शोधार्थी
------------------------------------------------------------------------------------------
‘भाषा, संस्कृति और साहित्य के विविध परिप्रेक्ष्य : सन्दर्भ
पूर्वोत्तर भारत’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी राजीव गाँधी
विश्वविद्यालय के ए. आई. टी. एस. कान्फ्रेंस हाॅल में आयोजित हुआ। हिन्दी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय एवं उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान, लखनऊ के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित यह कार्यक्रम सुबह 10 बजे
दीप-प्रज्ज्वलन एवं विश्वविद्यालय-गीत के साथ आरंभ हुआ। उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से सेवानिवृत प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
प्रो. कृष्ण मुरारी मिश्र ने की, तो बीज-वक्तव्य केन्द्रीय
हिन्दी संस्थान, आगरा के निदेशक प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय
ने दिया। इस मौके पर विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति प्रो. अमिताभ मित्र की
ओर से प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय के सम्मान में अभिनन्दन-पत्र भेंट किया गया जिसका
वाचन हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. ओकेन लेगो ने किया।
प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय ने आह्लाद भरे
स्वर में कहा कि, ‘उनका सीना गर्वित है, यह देखकर कि उनका
पढ़ाया विद्याथी आज हिन्दी विभाग में प्रोफेसर है, विभागाध्यक्ष है; यह व्यक्तिगत रूप से गर्व अनुभव करने का
समय है कि उनके द्वारा शिक्षा प्राप्त किए छात्र अरुणाचल के उच्च शिक्षा में महती
योगदान दे रहे हैं, तो हिंदी भाषा
के माध्यम से अपनी भाषा,
बोली, संस्कृति और
लोक-साहित्य को भी समृद्ध कर रहे हैं।’’ उन्होंने मुख्य रूप से डाॅ. जोराम यालाम नाबाम और डाॅ. जोराम आनिया ताना का
नाम लेते हुए कहा कि यालाम कुछ वर्ष पूर्व न्यूयार्क हिन्दी सम्मेलन में उनके साथ
थीं, तो इस बार
डाॅ. आनिया मारीशस हिन्दी सम्मेलन में केन्द्रीय मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा
सम्मानित हुई। उन्होंने अपने बीज वक्तव्य में भाषा के पुराने रूपों से लेकर
वर्तमान स्वरूपों पर चर्चा करते हुए कहा कि कई भाषाएँ कालांतर में लुप्तप्राय हो
जाती हैं और उनकी जगह उसी लोक-समाज की एक नई भाषा प्रचलन में आ जाती हैं। संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश के समय की
भाषाएँ इसी तरह बदलाव को स्वीकार करती हुई आज हिंदी के खड़ी बोली के रूप में
लोकप्रिय हो चली हैं। प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय ने कहा कि “पूर्वोत्तर की भाषा, संस्कृति और लोक-साहित्य
आज भी प्रचुरता में उपलब्ध हैं या बाहरी दबाव के बावजूद बची हुई हैं, तो उसका मुख्य कारण है
कि यहाँ के लोगों ने इनको अपनी दाँत से कस के पकड़ रखा है। भाषा के संरक्षण-सुरक्षा के लिए प्रेम और
समर्पण अनिवार्य है। लोक-कवियों, संतों ने इसे जिलाने और लोक में बनाये रखने का जो यत्न किया है, वह स्तुत्य है। असम
में सांस्कृतिक स्वाभिमान उच्चतर है, कारण कि शंकरदेव,
माधवदेव आदि ने लोक की सत्ता में भाषा-साहित्य सम्बन्धी ढेरों प्रयोग किए।
सिर्फ लिखा ही नहीं नाटक भी किया, वाद्ययंत्रों का विकास तक की।“
कार्यक्रम के शुरुआत
में ही विषय-प्रस्तावना प्रस्तुत करते हुए भाषा संकायाध्यक्ष और हिंदी विभाग के
प्रोफेसर हरीश कुमार शर्मा ने कहा कि “भाषा के प्रति हमारा अनुराग, लगाव कम है जिसे महात्मा गाँधी सबसे अधिक
महत्त्व देते थे। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के विविध पक्षों पर
पूर्वोत्तर के आलोक में गहन विचार-मंथन हो और नए सन्दर्भों, अर्थो, अभिप्रायों की खोज की
जाए यह इस आयोजन का मुख्य प्रयोजन है।“ अपने वक्तव्य में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित विश्वविद्यालय
के कुलपति प्रो. अमिताभ मित्र ने कहा कि, ‘भारत में कई स्तरों पर भिन्नता और विविधता हैं। पूर्वोत्तर की भाषा, साहित्य एवं संस्कृति
में भी जाति, धर्म, समुदाय, वर्ग इत्यादि के स्तर
पर अनेकानेक बहुलताएँ हैं। अरुणाचल की भी यही विशेषता है। इस संगोष्ठी के माध्यम
से विद्वानगण जो चर्चा या विमर्श करेंगे वह पूर्वोत्तर के भाषा, साहित्य एवं संस्कृति
को बचाने की दृष्टि से बेहद महत्त्वपूर्ण होगा। प्रो. कुष्ण मुरारी मिश्र ने अपने
अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि, ‘‘भाषा मनुष्य के पास सबसे बड़ी सम्पत्ति है। इसके माध्यम से
वह साहित्य एवं संस्कृति को बचाने का सारा उपक्रम कर सकता है। पूर्वोत्तर में भी
यह होना समय की माँग है। अपनी लोक-धारणा, स्मृति, अनुभव, सांस्कृतिक पहचान आदि
को बचाने के लिए आवश्यक है कि हम इसके महत्त्व को समझे और इसका उपयोग हम सांस्कृतिक
मनुष्य के निर्माण के लिए करें।“
इस द्वि-दिवसीय
संगोष्ठी के पहले दिन चले दो तकनीकी सत्रों में कई वक्ताओं ने अपनी बातें रखीं।
तुम्बम रीबा ने अपने वक्तव्य में अरुणाचल के गालो जनजाति की स्त्रियों के वर्तमान
स्थिति का उल्लेख किया। उन्होंने अपनी संस्कृति में मान्य पारम्परिक प्रथाओं का
उदाहरण देते हुए कहा कि,
‘‘समाज में जितने भी बंधन है, नियम है, कानून है सब के सब
स्त्रियों के लिए है;
पुरुष तो शासक है,
निर्णायक है। गालो लोककथाओं में स्त्री सम्बन्धी रूढ़ियों का जीवंत चित्रण है
जिनका उल्लेख यहाँ प्रचलित मुहावरों, लोकोक्तियों आदि में भी देखे जा सकते हैं। यद्यपि गालो जनजाति में स्त्रियाँ
अपराजिता एवं सृष्टिकर्ता के रूप में सम्मानित हैं।‘’ सोनम वाङमू ने अपने वक्तव्य में कहा कि, ‘‘हर भाषा की अपनी प्रवृत्ति और व्याकरणिक पद्धति होती है।
इसे पूरी तरह ग्रहण करने में कई सारी कठिनाइयाँ सामने आती हैं। हिन्दी शिक्षण की
चुनौतियाँ भी उनमें से एक है। अरुणाचल में हिन्दी पढ़ाते हुए अध्यापक का दायित्व
बड़ा है। उसे सिर्फ भाषा का ही ज्ञान नहीं कराना है, अपितु हिन्दी भाषा के मानक एवं शुद्ध रूप
से भी अवगत कराना है।“ दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी मणि कुमार ने असमिया
साहित्य-संस्कृति में माधवदेव के अवदान को लेकर अपनी बातें रखीं और कहा कि “माधवदेव की
रचनाओं में अखण्ड भारत की अभिव्यक्ति है, तो सांस्कृतिक एकता के सारे तत्त्व विद्यमान हैं।“ दिल्ली
विश्वविद्यालय से आए प्रो. चंदन कुमार ने प्रथम तकनीकी सत्र की अध्यक्षता करते हुए
असम-अरुणाचल सहित पूरे पूर्वोत्तर में फैले भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के विभिन्न उपादानों
को गहरी अन्तर्दृष्टि से देखने तथा उन्हें सूक्ष्मता के साथ पहचानने पर बल दिया।
उन्होंने पूर्वोत्तर की सांस्कृतिक एवं भावात्मक एकता का उदाहरण देते हुए कहा कि “हिंदी के साथ
उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों का निकट का रिश्ता है। लेकिन हिंदी को यदि राष्ट्रीय
छवि बनानी है, तो उसका
मानकीकरण करना होगा;
लेकिन उसमें भी स्थानिक छवियों एवं लोक-बिम्बों का पुट होना आवश्यक है।“
दूसरे तकनीकी सत्र में
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए दलित चिंतक-लेखक जयप्रकाश कर्दम ने कहा कि “असमानता और भेदभाव
भारतीय समाज की बुनियाद में हैं। इन्हें आसानी से नकारा नहीं जा सकता है। हम सिर्फ
एक ज़बान बोलने से एक हो जाते हैं, ऐसा नहीं है। पूर्वोत्तर के लोगों को आज भी अपनी भारतीय पहचान साबित करने के
लिए संघर्ष करना पड़ता है, आए दिन ज्यादतियाँ झेलनी पड़ती हैं। भाषा एवं विचार की अभिव्यक्ति के स्तर पर भी हमें समान
अवसर और अधिकार मिलने चाहिए। हमें आपस के भाषाई एवं सांस्कृतिक अन्तर्विरोध को दूर करने
का हरसंभव प्रयास करना चाहिए।“ इस सत्र में
वक्ता के रूप में मनोज कुमार मौर्य, मेमा चेरी, मोहिनी
पाण्डेय, अजय कुमार, विजय कुमार ने अपनी
बातें रखीं। उद्घाटन सत्र में स्वागत वक्तव्य इस संगोष्ठी के संयोजक डाॅ.
सत्यप्रकाश पाल ने दी,
तो संचालन डाॅ. जोराम यालाम नाबाम ने किया। दूसरे और तीसरे सत्र
का संचालन डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद एवं वन्दना पाण्डेय ने किया। संगोष्ठी के
प्रथम दिन का समापन सांस्कृतिक कार्यक्रम से हुआ जिसमें हिन्दी विभाग
के विद्यार्थियों, शोधार्थियों, संगीत एवं चारु कला के
कलाकारों ने रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किए।
....................................................
रिपोर्ट:
राजीव रंजन
प्रसाद
सहायक
प्राध्यापक
हिंदी विभाग
राजीव गाँधी
विश्वविद्यालय
रोनो हिल्स, दोईमुख
अरुणाचल
प्रदेश-791 112